श्वेता पुरोहित। श्रीकृष्ण और विचक्रका घोर युद्ध तथा विचक्रका वध वैशम्पायनजी कहते हैं – इसी बीच में वहाँ द्वन्द्वयुद्ध होने लगा। शार्ङ्गधन्वा गदाधारी श्रीकृष्ण ने विचक्र के साथ युद्ध आरम्भ कर दिया। बलभद्र ने हंस के साथ और सात्यकि ने डिम्भक के साथ लोहा लिया। नरभक्षी हिडिम्ब वसुदेव तथा उग्रसेन के साथ युद्ध करने लगा। किसी के सामने दीनता न प्रकट करने वाले शेष वीर शेष योद्धाओं के साथ जूझने लगे।
भगवान् श्रीकृष्ण ने दैत्य की छाती में तिहत्तर (७३) बाण मारे। उन बाणों की धार बड़ी तीखी थी। उन्होंने रणभूमि में विस्मय प्रकट करते हुए उस दैत्य पर प्रहार किया था। तब उस दानव ने भी अपने श्रेष्ठ धनुष को कान तक खींचकर एक सुदृढ़ और पैने बाण से देवदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण की छाती में शचीपति इन्द्र के देखते-देखते प्रहार किया।
वक्षःस्थल में उसके बाण की चोट खाकर भगवान् जनार्दन विष्णु रक्त वमन करने लगे, ठीक उसी तरह जैसे सृष्टि के आदिकाल में उन्होंने प्रजावर्ग को अपने मुख से प्रकट किया था। तदनन्तर कुपित हुए भगवान् हृषीकेश ने एक क्षुरप्र से उस दानव की ध्वजा काट डाली, फिर उसके चारों घोड़ों को मारकर तीन बाणों से सारथि को भी काल के गाल में डाल दिया। तदनन्तर तारकामय संग्राम की भाँति उन्होंने अपना महान् शङ्ख बजाया। तब क्रोध से मूच्छित हुए उस दानव ने सहसा रथ से उछलकर एक दुःसह शक्तिशालिनी एवं महाभयंकर गदा हाथ में ले ली और उसके द्वारा उस दैत्यराज ने पहले तो श्रीकृष्ण के किरीटपर आघात किया, फिर उनके ललाट में चोट पहुँचायी। तत्पश्चात् वह जोर-जोर से सिंहनाद करने लगा। इसके बाद उस दानव ने एक बहुत बड़ी शिला उठायी और उसे दस बार घुमाकर भगवान् श्रीकृष्ण की छातीपर दे मारा। उस शिला को अपनी ओर आते देख भगवान् श्रीकृष्ण ने हाथ से पकड़ लिया और उसी से उस दैत्य पर आघात किया। उस प्रहार से पीड़ित हो वह दैत्य प्राणहीन-सा हो गया और लम्बी साँस-सा खींचता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा।
तदनन्तर होश में आकर वह दैत्य कुपित हो उठा। क्रोध से उसकी आभा दुगुनी हो गयी। उसने भयंकर परिघ लेकर भगवान् जनार्दन से इस प्रकार कहा – ‘गोविन्द ! इस परिघ से मैं तुम्हारा सारा घमंड चूर्ण किये देता हूँ। उन दिनों जब देवासुर-संग्राम हो रहा था, तुम मेरा पराक्रम जान चुके हो। जनार्दन ! वे ही दोनों मेरी विशाल भुजाएँ हैं और वही मैं हूँ। वीर! तुम मेरे बल को जान चुके हो तो भी मुझसे युद्ध करते हो। महाबाहो ! मेरी भुजाओं से छूटे हुए इस परिघ को रोको तो सही। ऐसा कहकर उस दैत्य ने सब लोगों के देखते- देखते शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले देवदेवेश्वर जगदीश्वर श्रीकृष्ण पर वह परिघ चला दिया।
भगवान् श्रीकृष्ण ने उस परिघ को हाथ से पकड़ लिया और ‘अब तू शीघ्र ही मारा जायगा’ ऐसा कहते हुए उन्होंने अपनी तीखी तलवार से उस परिघ के टुकड़े- टुकड़े कर डाले। तब उस दैत्यराज ने सौ शाखा और बहुत ऊँची शिखा वाले एक विशाल वृक्ष को उखाड़कर उसे विस्तृत यश वाले भगवान् श्रीकृष्ण पर दे मारा। माधव श्रीकृष्ण ने अपनी तलवार से उस वृक्ष को भी तिल-तिल कर के काट डाला। इस प्रकार उस दैत्य के साथ चिरकालतक क्रीड़ा करके भगवान् महाविष्णु ने उस समय उसे मार डालने की इच्छा की और एक तीखा बाण हाथ में लेकर उसे आग्नेयास्त्र से संयुक्त करके उसके द्वारा उस दैत्यपर आघात किया।
उस बाण ने सब लोगों के देखते-देखते दैत्य को जलाकर भस्म कर दिया और पहले की भाँति वह शीघ्र ही भगवान्के हाथ में चला गया। फिर मरने से बचे हुए दैत्य दसों दिशाओं में भागते हुए महासागर को चले गये। वे अब भी वहाँ से लौट नहीं रहे हैं।
जय श्री हरि
शेष अगले भाग में…