श्वेता पुरोहित। हंस और डिम्भक की कथा हिडिम्ब के साथ वसुदेव और उग्रसेन का युद्ध तथा बलभद्र के द्वारा हिडिम्ब का वध
- पाण्डव भीमसेन ने एकचक्रा नगरी में जाने से पूर्व जिस हिडिम्ब नामक राक्षस को मारा था, वह इससे भिन्न था और वह इससे पहले ही मारा जा चुका था। यह दूसरा हिडिम्ब बलभद्रजी के हाथों मारा गया।
वैशम्पायनजी कहते हैं – वसुदेव और उग्रसेन बूढ़े होनेपर भी युद्ध में परम सुख मानने वाले थे। उनके सारे अङ्ग जरा से जीर्ण हो गये थे, शरीर में झुर्रियाँ पड़ गयी थीं और सिर के बाल सफेद हो गये थे। वे ज्ञान-विज्ञान से सम्पन्न तथा राजमार्ग (क्षत्रियधर्म युद्ध) में चतुर थे। ये दोनों उस महासमर में दुरात्मा राक्षस हिडिम्ब के साथ युद्ध करने लगे। उन दोनों ने अनेक सहस्र बाणोंद्वारा रणभूमि में नरभक्षी राक्षसराज दुरात्मा हिडिम्ब को पीडित कर दिया।
राक्षसराज हिडिम्ब सब ओर से मनुष्योंको खाता हुआ अत्यन्त हृष्ट-पुष्ट हो गया था। उसकी भुजाएँ बड़ी-बड़ी और ठोड़ी विशाल थी। वह बड़ा दुष्टात्मा था। उसका पेट लम्बा और नेत्र विकराल थे। सिर के बाल पिंगल वर्ण के दिखायी देते थे। उसकी आँखें विकृत थीं। नासिका बाज की चोंच के समान जान पड़ती थी। वह महाभयंकर और विशाल भुजाओं से युक्त था। उसके रोम ऊपर को उठे हुए थे। शरीर पर्वताकार दिखायी देता था। दाढ़ें बड़ी-बड़ी थीं और मुँह गीदड़ के समान प्रतीत होता था। लम्बे पेट और बड़े-बड़े दाँतोंवाला वह राक्षस सम्पूर्ण जगत्को अपना ग्रास बना लेने के लिये तत्पर जान पड़ता था। उसके कंधे ऊँचे, छाती चौड़ी और गर्दन लम्बी थी। वह देखने में हाथी जैसा जान पड़ता था। वह पिटारी भर मांस खाता और संचित करके रखे हुए घड़ों रक्त पी जाता था।
वह हाथियों से हाथियों को, घोड़ों से घोड़ों को, रथों से रथों को और सवारों से सवारों को मारकर कुचल देता था। वह मनुष्यों को अपने सामने देखकर उन्हें नासिका का ग्रास बना लेता था। नसकी तरह श्वासमार्ग से भीतर खींच लेता था। नरभक्षी हिडिम्ब ने सब ओर से आक्रमण करके कुछ वृष्णिपालक योद्धाओं को मारकर सहसा अपना आहार बना लिया। उस विकराल रूपधारी राक्षस ने जिन्हें सामने देखा, उन्हीं का वध कर डाला। पुरुषभक्षी राक्षसराज हिडिम्ब ने कितने ही वृष्णियों और यादवों को खाते हुए उनमें से कुछ को उठाकर सहसा दूर फेंक दिया।
जैसे कुपित हुए रुद्रदेव अन्तकाल में प्राणियों का संहार कर डालते हैं, उसी प्रकार उस राक्षस ने एक ही क्षण में उन सबका भक्षण कर लिया। कुछ पराक्रमशाली वृष्णिवंशी भयभीत हो विभिन्न दिशाओं में भाग गये तथा कितने ही वृष्णिवंश के श्रेष्ठ योद्धा उस राक्षस के आहार बन गये। जैसे कुम्भकर्ण वानरोंको खा गया था। उसी प्रकार उस नरभक्षी निशाचर ने वृष्णिवंश की सेना को समाप्त- सी कर दिया।
इसी बीच में बूढ़े यादवशिरोमणि वसुदेव और उग्रसेन कुपित हो महाभयंकर धनुष हाथ में लेकर उस राक्षस के सामने खड़े हुए, मानो क्रोध में भरे हुए सिंह के समक्ष दो अत्यन्त वृद्ध मृग आ गये हैं। उस समय वह महाराक्षस मुँह बाकर उन दोनों बूढ़ों को खा जाने की इच्छा से उनकी ओर दौड़ा। उसके नेत्र बड़े भयंकर थे। वह अपने खुले हुए मुख से पाताल-तल के समान प्रतीत होता था। तदनन्तर मनुष्य के शरीर को बारम्बार चबाता हुआ वह राक्षस उन दोनों की ओर वेगपूर्वक दौड़ा।
उस समय उन युद्धश्रेष्ठ वीरों ने अपने बाणों द्वारा हिडिम्ब के महाभयंकर खुले हुए मुख को, जो मुँह बाये हुए यमराज के समान जान पड़ता था, अपने बाणों से भर दिया। तब उस विकराल रूपधारी देवद्रोही भयानक राक्षस ने उन सब बाणों का निवारण कर दिया और पुन: मुँह फैलाकर उनपर धावा किया।उसने उन दोनों के धनुष छीनकर तुरंत उस युद्धस्थल में ही तोड़ डाले; फिर वह विकराल मुखवाला दुष्टात्मा राक्षस अपनी दोनों बाहें फैलाकर वृद्धसेवी भूपाल राजा वसुदेव को उस राजसमाज में ही पकड़ने की चेष्टा करने लगा। वह राक्षसों में श्रेष्ठ समझा जाता था।
हिडिम्ब बोला- उग्रसेन ! तुम किस लिये मेरे सामने खड़े हो । मैं अभी तुम दोनों को खा जाऊँगा । तुम्हारे साथ वसुदेव को भी चट कर जाऊँगा। आओ! मेरे मुख में प्रवेश करो। तुम दोनों मेरे ग्रासस्वरूप हो। जिसे विधाता ने श्रीकृष्ण का पिता बना दिया है, वह बूढ़ा वसुदेव भूख से पीड़ित है, परिश्रम से कष्ट पाता है और युद्ध में शीघ्रतापूर्वक पराक्रम प्रकट करता है। अब तुम दोनों मेरे मुँह से छूटकर नहीं जा सकते, तुरंत ही मेरे मुख के भीतर प्रवेश करो। तुम दोनों का रक्त पीकर मैं तृप्त होऊँगा और संतोष प्राप्त करूँगा। इसके बाद तुम दोनों वृद्धों के मांस को मैं सुख पूर्वक खाऊँगा।
ऐसा कहता हुआ विशाल ठोड़ीवाला राक्षसराज निशाचर हिडिम्ब उस समय मुँह बाकर उनकी ओर दौड़ा। तब शस्त्रहीन हुए वृष्णिशिरोमणि वसुदेव और उग्रसेन भयभीत हो सब ओर देखकर विभिन्न दिशाओं में भागने लगे।
इसी बीच में प्रतापी बलभद्र ने वसुदेव और उग्रसेन को वैसी अवस्था में पड़ा देख, जूझते हुए हंस का भार बलवान् श्रीकृष्ण को सौंप दिया और स्वयं वे उस दुरात्मा राक्षस के बीच में आकर इस प्रकार बोले – ‘ओ राक्षस! ऐसा दुःसाहस न कर। इन दोनों भूपशिरोमणियों को छोड़ दे। मैं खड़ा हूँ। शत्रुओं के वध की इच्छा से यहाँ आये हुए मुझ बलभद्र के साथ तू युद्ध कर। केवल मैं ही तुझे मार डालूँगा, यह क्या तेरी विभीषिका है!’ इस तरह बोलते हुए हलधर की बात सुनकर हिडिम्ब ने उस महासमर में वसुदेव और उग्रसेन को तो छोड़ दिया और सोचा- ‘यह महान् दुष्ट है, अतः पहले इसी को खा जाऊँ’ ऐसा विचारकर पूर्ववत् मुँह फैलाये हुए उसन बलभद्र पर धावा किया। बलवान् बलभद्र बाणसहित धनुष को त्यागकर अपनी उत्तम भुजा पर ताल ठोंकते हुए उस राक्षस के आगे मुट्ठी बाँध कर खड़े हो गये।
दुष्टात्मा हिडिम्बने भी मुँह बाये हुए यमराज की भाँति भयंकर मुट्ठी बाँध कर बलराम के वक्षःस्थल पर प्रहार किया। उसके मुक्के की मार खाकर अनिन्द्य बलशाली बलभद्र जी कुपित हो उठे। फिर उन्होंने भी उस राक्षसराज को मुक्के से मारा। फिर तो उन नर और निशाचर-वीरों में मुक्के से ही युद्ध होने लगा। युद्ध की रङ्गभूमि में जूझते हुए नरसिंह बलभद्र और राक्षस सिंह हिडिम्ब के मुक्कों का भयंकर चट-चट शब्द प्रकट होने लगा। तदनन्तर राक्षस राज हिडिम्ब ने समराङ्गण में बलराम के वक्षःस्थलपर मुक्के से प्रहार किया, मानो देवराज इन्द्र ने किसी पर्वत पर वज्र से आघात किया हो। इसके बाद साक्षात् बलवान् बलराम ने यत्नपूर्वक मुट्ठी बाँधकर देवद्रोही हिडिम्ब के वक्षःस्थल पर बड़े जोर से आघात किया। तत्पश्चात् उन्होंने उस राक्षस के मुँहपर दो तमाचे जड़ दिये। उनके तमाचे की मार खाकर वीर निशाचर राक्षसराज हिडिम्ब प्राणहीन-सा होकर घुटनों के बल पृथ्वीपर गिर पड़ा।
फिर बलरामजी ने उछल कर उस राक्षस को दोनों हाथों से पकड़ लिया और उसे उठाकर पग-पगपर बड़े वेगसे घुमाया। इस तरह अपना बल दिखाते हुए बलरामजी देरतक उसे घुमाते रहे। फिर सब लोगों के देखते-देखते हलधर ने उस राक्षसराज को उछालकर वहाँ से दो कोस दूर फेंक दिया। इस प्रकार राक्षस-प्रवर हिडिम्ब प्राणशून्य होकर उस स्थान से दूर निकल गया। उस महासमरमें जो कोई भी राक्षस वहाँ मरने से बचे हुए थे, वे बलभद्रजी से भयभीत हो वहाँ से दसों दिशाओं में भाग गये।
तदनन्तर सहस्रों किरणों से सुशोभित दिन के स्वामी अंशुमाली भगवान् सूर्य अपने तेज समेटकर अस्ताचल को चले गये और प्रजाजनों के नेत्रों में कुछ-कुछ अन्धकार का समावेश हो गया। सम्पूर्ण विश्व के मुखस्वरूप प्रजापालक जगद्गुरु सूर्यदेव के समुद्र के जल में प्रवेश कर जानेपर नक्षत्रनाथ चन्द्रमा का उदय हुआ, जिस से संध्याकाल का अन्धकार भी नष्ट हो गया। उस समय हंस की सेना में जो श्रेष्ठ नरेश थे, वे यह कहते हुए वहाँ समरोत्सव से विरत हो गये कि ‘राजन्! कल प्रात:काल का युद्ध किन्नरों के गीत से गूंजते हुए गोवर्धनपर्वत पर हो तो अच्छा होगा’ (ऐसा कहकर वे सब नरेश वहाँ से भाग कर गोवर्धन पर्वत पर चले गये)।
शेष अगले भाग में…
अब सिर्फ दो भाग शेष रह गए हैं इस कथा के अंत होने में।
जय श्री हरि