श्वेता पुरोहित। पुष्कर तीर्थ के तट पर दुर्वासा मुनि और यतिगण से भेंट और दोनों भाइयों का अहंकार
वैशम्पायनजी कहते हैं – उस समय धर्मात्मा जनार्दन, हंस और डिम्भक ने उस यज्ञमण्डप में प्रवेश करके उन मुनीश्वरोंको प्रणाम किया। शिष्यों- सहित उन महात्मा मुनियों ने अर्घ्य, पाद्य तथा आसन आदि देकर वहाँ पधारे हुए उन अतिथियों का यत्न पूर्वक सत्कार किया। वे दोनों राजकुमार और वह विप्रवर जनार्दन तीनों महामनस्वी पुरुष वह सत्कार ग्रहण करके मन-ही-मन प्रसन्न होकर वहाँ सुखपूर्वक बैठे।
तत्पश्चात् वाणी को संयम में रखनेवाले हंसने उन मुनियों से कहा – ‘मुनिश्रेष्ठगण ! हम दोनों के पिता साधन सहित राजसूय यज्ञ करने की इच्छा रखते हैं। मुनिवरो ! इस सत्र के अन्त में आपलोगों को मेरे पिता के उस यज्ञ में पधारना चाहिये। ब्राह्मणो ! हमलोग दिग्विजय करके अपने पिता धर्मात्मा नरेश से राजसूय यज्ञ का अनुष्ठान करायेंगे। उसमें शिष्यों तथा अग्निहोत्र आदि सामग्रियोंसहित आप सभी श्रेष्ठ ब्राह्मण अवश्य पधारें।
‘हम दोनों भाई सदा एक साथ रहनेवाले हैं। हमारे साथ जनार्दनजी भी हैं। हम तीनों आज ही दिग्विजय प्रारम्भ कर देंगे। यों तो अपने सैनिकसमूहों द्वारा हमलोग ही इस यज्ञ का अनुष्ठान कर सकते हैं; क्योंकि हमारे सामने युद्ध में दानव और देवता भी नहीं ठहर सकते। हमने कैलासवासी महादेवजी से यत्नपूर्वक वर प्राप्त किया है। हम शत्रुसमूहों के लिये अजेय हैं और हमारे पास नाना प्रकारके अस्त्र-शस्त्र हैं।’ ऐसा कहकर बल के मदसे उन्मत्त हुआ हंस चुप हो गया।
मुनि बोले- नृपश्रेष्ठ ! यदि आपका यज्ञ होगा तो हम शिष्यों सहित उसमें अवश्य चलेंगे। राजन् ! अन्यथा (यदि वह यज्ञ नहीं हुआ तो) हम यहीं रहेंगे। ऐसा उन तपस्वी मुनियोंने उत्तर दिया।
वैशम्पायनजी कहते हैं – तदनन्तर उस स्थान से जानेका निश्चय करके वे दोनों पुष्कर के उत्तर तटपर गये, जहाँ दुर्वासामुनि रहते थे। वहाँ यतिगण शौच-संतोष आदि नियमों में तत्पर रहकर मन्त्रमय ब्रह्म (प्रणव) का जप एवं उसके अर्थका चिन्तन करते थे। ब्रह्मसूत्र के पदों के स्वाध्याय में संलग्न रहकर उनके अर्थ (ब्रह्म) के साक्षात्कार के लिये यत्नशील रहते थे।
उनमें ममता और अहंकार का सर्वथा अभाव था। वे नियमपूर्वक कौपीन तथा आच्छादन वस्त्र धारण करते थे। जो सबके आत्मा, जगत्की उत्पत्ति के कारण, सर्वव्यापी, सम्पूर्ण विश्व के नियन्ता, विभु, ब्रह्मस्वरूप, शुभ, शान्त, अक्षर (अविनाशी), सब ओर मुखवाले, वेदान्तस्वरूप, अव्यक्त, अनन्त, सनातन, कल्याणमय, नित्ययुक्त, विरूपाक्ष (रुद्ररूप), सम्पूर्ण भूतोंके आधार, अनामय, सर्वतोमुख, दुर्वासाजी के द्वारा सदा उपासनीय, वेदान्तैक – रस तथा गुरुस्वरूप हैं, उन परमात्मदेव का वे यतिगण अपने मन से सदा ही चिन्तन करते थे।
वे हंस और परमहंससंज्ञक संन्यासी मुनिवर दुर्वासा के शिष्य थे। उन्होंने तर्कयुक्त बुद्धि के द्वारा परमार्थका निश्चय कर लिया था और ज्ञान के आलोक से उनका अन्तःकरण निर्मल हो गया था।
उन दोनों महामनस्वी राजकुमारों ने वहाँ पहुँचकर ऊर्ध्वरता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) परम बुद्धिमान् एवं परमपद के अनुसंधान में लगे हुए दुर्वासामुनि का दर्शन किया। वे दुर्वासामुनि यदि कुपित हो जायँ तो इन सम्पूर्ण लोकों को दग्ध करने में समर्थ हैं। कुपितावस्था में देवता भी उनका दर्शन करने का कभी साहस नहीं कर सकते। वे सदा रोषमूर्ति माने गये हैं। उन्हें विश्वरूपधारी रुद्रात्मा बताया गया है। वे गेरुए रंग का कौपीन वस्त्र धारण किये हुए थे और परमहंसस्वरूप में स्थित थे।
उनका दर्शन करके उन दोनों राजकुमारों के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ – ‘यह कौन महाभूत है, जो काषायवस्त्र पहने हुए है, वर्ण-विभाग के विद्वानों में यह श्रेष्ठ जान पड़ता है (क्योंकि इसमें किसी भी वर्ण के चिह्न नहीं हैं!) तथा गृहस्थाश्रम को छोड़कर यह आश्रम भी कौन-सा है ? गृहस्थ ही धर्मात्मा होता है, गृहस्थ ही धर्मज्ञों में श्रेष्ठ है, गृहस्थ ही धर्मस्वरूप है तथा गृहस्थ ही चातुर्वर्ण्यमय है। गृहस्थ सदा सभी प्राणियों का माता के समान पालन करनेवाला और सर्वदा उनके जीवन की रक्षा करनेवाला है।
उस आश्रम को छोड़कर जो दूसरे रूप से बर्ताव करता है, वह अत्यन्त मूर्ख के समान है। यह तो कोई पागल, विचित्र रूपधारी अथवा मूर्ख ही है। यह ध्यान करता हुआ-सा बैठा है; परंतु ठग ही जान पड़ता है। ये प्राकृत ज्ञान वाले मनुष्य क्यों कुछ ध्यान-सा कर रहे हैं, इनके लिये उन्नति के पथपर आरूढ़ होना सर्वथा कठिन है।
ये दूसरे आश्रमों की कल्पना करनेवाले हैं। हम इन समस्त मन्दबुद्धि द्विजों को, जो मूढ़ ज्ञान में तत्पर हैं, बलपूर्वक गृहस्थाश्रम के भीतर स्थापित करेंगे। क्योंकि ये मूर्ख लोग दुराग्रह से गृहीत हैं और इनकी बुद्धि खोटी है। इन सबको उपदेश देनेवाला यह कौन मूर्ख बैठा है ? यह ब्राह्मण तो नहीं है ! अब हमलोग यहाँ आ गये हैं तो पहले इनके इस गुरु को ही धर्म के मार्गपर स्थापित करके फिर संतोष पूर्वक यहाँसे घरको जायँगे ।’
ऐसा निश्चय करके ब्राह्मण जनार्दन के साथ वे दोनों वीर राजा मोह अथवा भाग्यक्षय के कारण उन संयतचित्त यति के पास गये । वहाँ जाकर क्रोध में भरे हुए उन दोनों राजाओं ने इन्द्रियातीत दुर्वासा तथा नियमपरायण यतियोंसे इस प्रकार कहा।
शेष अगले भाग में…