श्वेता पुरोहित। दुर्वासा का रोष, हंस द्वारा उनका तिरस्कार, दुर्वासा द्वारा उन दोनों के लिये शाप और जनार्दन के लिये वरदान तथा दुर्वासा आदि मुनियों का द्वारका गमन
वैशम्पायनजी कहते हैं – तदनन्तर क्रोध में भरे हुए दुर्वासा ने सदा रौद्र अग्नि से युक्त एक नेत्र द्वारा इस प्रकार उन राजकुमारों की ओर देखा, मानो उन दोनों के प्राणों को दग्ध कर डालेंगे। उनकी इन्द्रियाँ रोष से व्याकुल हो रही थीं। वे उस समय उन दुरात्मा राजकुमारों की ओर इस तरह देख रहे थे मानो इन सम्पूर्ण लोकों को जलाकर भस्म कर देंगे। साथ ही वे उस ब्राह्मण जनार्दन की ओर दूसरे नेत्र से, जो केवल सौम्यभाव से युक्त था, देख रहे थे।
इस तरह देखते हुए वे उन राजाओं से बोले-‘अरे! अपने स्वजनों के पास भाग जाओ ! भाग जाओ !! यहाँ से जाओ ! क्यों विलम्ब करते हो! शीघ्र भाग जाओ ! राजाओ ! तुम दोनों की बातों से जो रोष प्रकट हुआ है, उसे मैं अपने भीतर रोक रखने में असमर्थ हूँ । चले जाओ! नहीं तो मैं तुम सभी भूपालों को जलाकर भस्म कर डालने में समर्थ हूँ। इससे बढ़कर दुःसाहस की बात और क्या होगी? कौन मेरे सामने ऐसी बात कह सकता है ? मन्दबुद्धि राजकुमारो! इस समय तुम दोनों से क्या कहूँ? तुम्हारे बढ़े हुए घमण्ड को शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले लोक विख्यात भगवान् श्रीकृष्ण चूर्ण कर देंगे ‘ । यह कहकर धर्मात्मा यतिराज दुर्वासा वहाँ से उठकर अन्यत्र जाने की इच्छा करने लगे। तब हंस उन यतीश्वर को रोकने का प्रयत्न करने लगा।
कृतान्त के समान क्रूर हंस ने दुर्वासा की बाँह पकड़कर उनका कौपीन फाड़ डाला। यह देख दूसरे यति होश-हवाश खोकर दसों दिशाओं में भागने लगे। ब्राह्मण जनार्दन मित्रता के कारण ‘हाय! बड़े कष्टकी बात है’ ऐसा कहता हुआ विलाप करने लगा। उसने यथाशक्ति रोका और कहा – ‘यह क्या दुःसाहस कर रहे हो ?’
सत्यधर्मपरायण दुर्वासा उसे मार डालने में समर्थ होते हुए भी उस समय हंस और डिम्भक से धीरे-धीरे इस प्रकार बोले- ‘राजवंशके नीच पुरुषो ! मैं शापद्वारा तुम दोनों को मार डालने में समर्थ हूँ, तो भी तुम्हारा विनाश नहीं कर रहा हूँ; क्योंकि यहाँ हमलोग यतिधर्म में प्रतिष्ठित हैं। जो सम्पूर्ण जगत्के स्वामी, यदुकुल के नायक तथा हाथ में शङ्ख, चक्र और गदा धारण करने वाले भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वे ही तुम दोनों के दर्प का दलन करेंगे। वे यदुश्रेष्ठ जगदीश्वर जब जगत्में इस प्रकार संरक्षण-कार्य कर रहे हैं, तब तुम दोनों का पृथक् पृथक् जीव सर्वथा श्रेष्ठ जीव है; ऐसा मेरा विश्वास है (क्योंकि उनके हाथ से मारे जाने पर तुम दोनों-की सद्गति होगी) ।
तुम दोनों का सहायक बन्धु जरासंधभी कभी ऐसी लोकनिन्दित बात मुँह से नहीं निकालना चाहता है। वह सदा धर्म के मार्गपर स्थित रहता है। तुम्हारे इस अपराध के कारण जरासंध अब फिर तुम्हारा बन्धु नहीं रह जायगा। उस मगधनरेश के साथ तुम्हारा विद्वेष हो जायगा। यदि तुम्हारे इस भयंकर अपराध को सुनकर भी वह बन्धुभाव से चुपचाप सह लेगा तो उसके भी धर्म का नाश हो जायगा। इसमें अन्यथा विचार करने की कोई आवश्यकता नहीं है।’ ऐसा कहकर दुर्वासा ने पुनः हंस से बारम्बार कहा-‘चले जाओ! चले जाओ !!’
तदनन्तर यतिश्रेष्ठ दुर्वासा जनार्दन से इस प्रकार बोले- ‘विप्रवर! तुम्हारा कल्याण हो ! भगवान् जनार्दन में तुम्हारी भक्ति बनी रहे। शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले उन भगवान्के साथ आज, कल या परसों तक तुम्हारा समागम होगा। तुम सदा साधुस्वभाव के ही बने रहोगे। साधु पुरुष का दोनों लोकों में कभी विनाश नहीं होता। जाओ, सारी बातें जानकर अपने पिता को बताओ’।
वैशम्पायनजी कहते हैं – तदनन्तर काल से प्रेरित हो क्रोध में भरे हुए हंस और डिम्भक ने उन यतियों के छींके, कमण्डलु, दो दलों से युक्त काष्ठमय भोजनपात्र, दण्ड और दूसरे-दूसरे विभिन्न पात्रों को तोड़-फोड़कर उसी स्थान में व्याधों द्वारा मांस
पकवाये। उन्हें खाकर वे दोनों उस स्थान से अपने नगर को गये। धर्मात्मा जनार्दन भी स्नेहवश उन
दोनों का अनुसरण करता रहा । उसने अत्यन्त दुःखित होकर यह विश्वास कर लिया कि अब इन दोनों के नष्ट होने में कोई संदेह नहीं है।
उन सब के चले जाने पर यतियों में श्रेष्ठ दुर्वासा ने यहाँ से पलायन करनेवाले समस्थ यतीश्वरों से इस प्रकार कहा- ‘यतिश्वरो ! इस पुण्ययुक्त देश पुष्कर से निकलकर धीरे-धीरे सुस्ताते और यत्र-तत्र विश्राम करते हुए द्वारकापुरी में प्रवेश करके हम लोग शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण से मिलेंगे और उनसे अपनी सारी कष्ट-कथा कहेंगे। वे इस सम्पूर्ण जगत्की रक्षा करते हुए धर्म के मार्गपर स्थित हैं। वे ही आदिपुरुष, लोकगुरु, सर्वव्यापी, मन को वश में रखने वाले और तत्त्ववेत्ताओं के प्रिय हैं। उन्होंने सारे कण्टकों का उन्मूलन करके इस पृथ्वी का शासन किया है। वे ही प्रभु समस्त महाभयंकर, पापजन्मा पापियों का उच्छेद करके अमानित्व और अदम्भित्व आदि ज्ञानसाधनों में नियतरूप से मन लगाने वाले हम सम्पूर्ण यतियोंकी रक्षा करेंगे । ब्राह्मणो ! इस समय यही हमारे योग्य है; अतः अब द्वारका की यात्रा करो।
साधुशिरोमणियो ! हंस और डिम्भक ने जो हमारे पात्रों के तोड़ने-फोड़ने आदि का दुःसाहस किया है, ये सारी वस्तुएँ हमलोग भगवान् जनार्दन को दिखायें’। तब ‘बहुत अच्छा’ कहकर वे सब ज्ञानदर्शी संन्यासी हंस और डिम्भकद्वारा छिन्न-भिन्न किये गये छींके, लकड़ी के बने हुए द्विदल (दो दलों से युक्त भोजन-पात्र, जो गौ के कान की-सी आकृति का बना होता है), गेरुए वस्त्र, कौपीन, वल्कल तथा कमण्डलुका आधा टुकड़ा (जो पूरे कमण्डलु को बीच से चीर डालने के कारण दो खण्डों में विभक्त हो गया था) – इन सब को तथा अन्य सब तोड़ी-फोड़ी गयी वस्तुओं को साथ लेकर भगवान् श्रीकृष्ण से मिलने के लिये आये।
उनकी संख्या पाँच हजार थी, वे जितेन्द्रिय महात्मा सिर के केश मुड़ाये रहते थे और उनके शेष शरीर रोमावलियों से युक्त थे। वे यतिगण भगवान् शङ्कर के अंश से उत्पन्न हुए तपोयोनि महामुनि दुर्वासाको आगे करके दिन-रात चलते हुए श्रीकृष्णपालित द्वारकापुरी में जा पहुँचे। प्रातःकाल पुरी में प्रवेश करके वे यतीश्वरगण वहाँ की एक बावड़ी में स्नान और आचमन करके बड़े प्रयत्न से उन भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये उद्यत हुए, जो एकरूप धारण करके सुधर्मा-सभा में विराजमान हो जगत्के कण्टकों को उखाड़ फेंकने के प्रयत्न में लगे हुए थे ।
शेष अगले भाग में…