श्वेता पुरोहित । जनार्दन का हंस को समझाना, किंतु हंस का उनकी बात न मानकर उन्हें दूत बनाकर द्वार का को भेजना तथा जनार्दन की भगवद् दर्शन विषयक उत्कण्ठा
वैशम्पायन जी कहते हैं – दुर्वासा मुनि वहीं महात्मा नारदजी के साथ ब्रह्मतत्त्व का चिन्तन करते हुए सुख पूर्वक विचरण करने लगे। भगवान् गोविन्द ने भी वहाँ उन दोनों को रहने की अनुमति दे दी। तदनन्तर दोनों भाई हंस और डिम्भक उस समय अपने पराक्रमशाली पिता महाराज ब्रह्मदत्त के पास जाकर सब ओर से भरे हुए दरबार में उनसे इस प्रकार बोले – ‘पिताजी! आप यत्नपूर्वक राजसूय महायज्ञ का अनुष्ठान कीजिये। हम दोनों इसी मास में आपके इस यज्ञ की सिद्धि के लिये प्रयत्न करेंगे। महाराज! हम दोनों भाई आपके लिये दिग्विजय करने के लिये तत्पर हैं। हाथी, घोड़े, रथ और पैदलों की चतुरङ्गिणी सेनाएँ साथ लेकर हम सम्पूर्ण दिशाओं पर विजय पाने का प्रयत्न करेंगे। आपको यज्ञ की सिद्धि के लिये सामग्रियों का संग्रह कराना चाहिये।’ तब राजा ब्रह्मदत्त ने ‘तथास्तु’ कहकर उन दोनों की बात मान ली।
उन दोनों को दुःसाहस में तत्पर होते देख, उनके प्रयास को असम्भव मानकर विप्रवर जनार्दन अपने मित्र हंस से कहा—‘हंस! पहले मेरी बात सुनो, सुनकर उसपर भलीभाँति विचार करके किसी निश्चयपर पहुँचो और उसके अनुसार पराक्रमपूर्वक कार्य करो। आयुष्मन्। नृपश्रेष्ठ! भीष्म, जरासंध, नृपशिरोमणि बाह्लीक तथा समस्त यादववीरों के रहते हुए तुम दुःसाहसपूर्ण कार्य करने के लिये उद्यत हुए हो। ‘भीष्मजी बलवान्, वृद्ध, सत्यप्रतिज्ञ और जितेन्द्रिय हैं। जिन भृगुकुलतिलक परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी पर विजय पायी है, उन्हें भीष्म ने सम्पूर्ण क्षत्रियों के देखते-देखते युद्ध में जीत लिया था। जरासंध का युद्ध में जो पराक्रम है, उसे तुम अच्छी तरह जानते हो। समस्त वृष्णिवंशी वीर भी अस्त्र-शस्त्रों के ज्ञाता तथा युद्ध में उन्मत्त होकर लड़ने वाले हैं। उनमें जो भगवान् श्रीकृष्ण हैं, वे सबकी इन्द्रियों के नियन्ता, शत्रु विजयी तथा सदा ही रणकुशल हैं । जरासंध के साथ सदा युद्ध करके उन्होंने परिश्रम को जीत लिया है। कोई भी श्रेष्ठ नरेश उनके सामने जीते-जी नहीं ठहर सकता’ ।
‘बलवान् बलभद्रजी बल के मद से उन्मत्त रहते हैं, वे यदि कुपित हो जायँ तो अकेले ही इन तीनों लोकों का संहार कर सकते हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। इसी तरह वीर सात्यकि भी रणभूमि में शत्रुओं को जीतने की शक्ति रखते हैं। अन्य सब यादव भी श्रीकृष्ण का आश्रय लेकर सदा युद्ध के लिये कवच बाँधे रहते हैं। हम लोगों ने पहले यतियों के साथ विरोध किया था। उन सब यतियों के साथ दुर्वासा मुनि भगवान् श्रीकृष्ण से मिलने के लिये गये हैं।
नृपश्रेष्ठ! यह बात मैंने अपने घर भोजन करने के लिये आये हुए एक ब्राह्मण से सुनी है। ऐसी अवस्था में जिस प्रकार अपना कार्य सिद्ध हो, उस उपाय का मन्त्रियों के साथ विचार करना चाहिये। इसके बाद हम राजसूय नामक महायज्ञ का अनुष्ठान करेंगे’ ।
हंस बोला – मन्दबुद्धि बूढ़ा और सदा का बलहीन भीष्म कौन-सा वीर है? क्या वह बूढ़ा हम दोनों के सामने ठहर सकता है? ब्रह्मन्! युद्ध में यादव हमारे सामने ठहर सकते हैं, यह तुम्हारी बात भी विचित्र ही है। वह कृष्ण और मतवाला बलभद्र भी कौन ऐसे वीर हैं, जो हमारे सामने ठहर सकें। विप्रवर! तुम यह निश्चय समझो कि सात्यकि भी हम दोनों के सामने नहीं ठहर सकता।
धर्मात्मा जरासंध तो सदा हमलोगों का हितैषी बन्धु ही है। विप्रवर! तुम यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण के पास जाओ और मेरी आज्ञा से तुरंत यह बात उनसे कहो – ‘केशव! तुम यज्ञ के लिये बहुत सुन्दर सामग्री तथा कर के रूप में अपना सारा धन दे दो, साथ ही बहुत-से नमक का संग्रह कर के शीघ्र आओ । श्रीकृष्ण ! तुम्हें इस कार्य में विलम्ब नहीं करना चाहिये।’ ब्रह्मन् ! तुम शीघ्रतापूर्वक जाओ और यदुश्रेष्ठ श्रीकृष्ण से मेरा यह संदेश सुना दो।
विप्र! मैं शपथ दिलाता हूँ, तुम मेरी बात का कोई उत्तर न देना। तुम मेरे प्रिय मित्र हो, मित्रभाव से ही यह बात जाकर कहो। मैं बारम्बार तुम्हारी ओर देखता हूँ। हंस से इस प्रकार प्रेरित होकर ब्राह्मण ने मित्र भाव तथा स्नेह के कारण उसे कोई उत्तर नहीं दिया। सदा धर्म में मन लगाये रखनेवाले जनार्दन श्रीकृष्ण के पास जाने के लिये उद्यत हो गये। ‘आज, कल या परसों मैं अवश्य जाऊँगा’ ऐसा कहकर वे जानेकी तैयारी करने लगे ।
धर्मात्मा जनार्दन शङ्ख, चक्र और गदा धारण करनेवाले जगत्कारण श्रीकृष्णका दर्शन करने के लिये अकेले ही तीव्रगामी अश्वपर आरूढ़ हो प्रात:काल ही द्वारका के लिये शीघ्रतापूर्वक चल दिये। उनकी यात्राका एक ही उद्देश्य था – इन्द्रियों के प्रेरक सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीहरि का दर्शन। ब्राह्मण जनार्दन उन्हींका मन-ही-मन स्मरण करते हुए चले।
तदनन्तर ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ ब्राह्मण जनार्दन एक अश्वपर सवार हो तुरंत भगवान् विष्णु हरि के पास चल दिये । जैसे ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की प्रचण्ड किरणों से पीड़ित हुआ पथिक कहीं दूर जल देखकर उसे पीने की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक उसके पास जाता है, उसी प्रकार ब्राह्मण जनार्दन भगवान् श्रीकृष्णका दर्शन करनेके लिये दौड़ते हुए ही चले। वे अपने उत्तम अश्व को हाँकते हुए मन-ही-मन इस प्रकार सोचने लगे – ‘वास्तव में हंस ही मेरा प्रिय मित्र है।
वही मेरा प्रिय और हित कर सकता है; क्योंकि उसीने मुझे द्वारका भेजा है, जहाँ मैं भगवान् श्रीहरिका दर्शन करूँगा । मैं ही सदा धन्य हूँ, मुझसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है; क्योंकि मैं द्वारकापुरी में निवास करनेवाले भगवान् विष्णु का दर्शन करूँगा । मेरी वह माता धन्य है, जो मनस्विनी देवी भगवान्का दर्शन करके सदा के लिये कृतार्थ होकर लौटे हुए मुझ अपने पुत्रको पुनः देखेगी । मैं शार्ङ्ग धनुष धारण करनेवाले देवाधिदेव श्रीकृष्ण के उस मुख का दर्शन करूँगा, जो विकसित सुवर्णमय कमल के केसर की सी कान्ति से प्रकाशित होता है । मैं श्रीकृष्ण के नीलकमलदल की सी कान्ति वाले उस श्यामसुन्दर शरीर का दर्शन करूँगा, जो शङ्ख, चक्र, गदा, शार्ङ्ग धनुष और वनमाला से विभूषित है’।
‘मैं देवाधिदेव श्रीकृष्ण के उन दोनों नेत्रों का दर्शन करूँगा, जो विकसित कमलदल के समान कान्तिमान् हैं। उस समय मेरे हृदय का सारा दैन्य दूर हो जायगा, दु:ख मिट जायँगे और मैं परमानन्द में निमग्न हो जाऊँगा। क्या योगात्मा भगवान् श्रीकृष्ण अपनी सौम्यदृष्टि से ही मेरी ओर देखेंगे, अथवा मुझे प्रिय लगने वाली बातें कहेंगे या ‘तुम्हारा कल्याण हो’ ऐसी वाणीका प्रयोग करेंगे? वहाँ चलकर मैं चक्रधारी भगवान् श्रीकृष्ण के उस विग्रह का दर्शन करूँगा, जो तीनों लोकों को अपने भीतर रखने के कारण त्रिलोकी के समान है। मेरा मन उन चक्रपाणि के चरणारविन्दों का दर्शन करने के लिये उतावला हो उठा है ।
मैं भगवान् विष्णु के उस वक्षःस्थल को देखता हुआ सा चलता हूँ, जो सदा उद्दीप्त कौस्तुभमणि की प्रभा से प्रकाशित होता है। तथा उन्हीं परमेश्वर का निरन्तर स्मरण करता हुआ उनकी सेवा में चल रहा हूँ । जो रेशमी पीताम्बर धारण करते हैं, नीचे तक लटकी हुई विशाल वनमाला से विभूषित हैं तथा जिन के अधरोंपर मन्द मुसकान की छटा छायी रहती है, उन भगवान् श्रीकृष्ण का आज मैं बारम्बार दर्शन करूँगा । श्रीहरि के उस रूपका स्मरण करते ही मेरे शरीर में यह इस तरह रोमाञ्च हो रहा है। चलते समय मेरे सामने शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये भगवान् खड़े जान पड़ते हैं। देव जगद्गुरु श्रीकृष्ण मेरे आगे-आगे जाते हुए-से प्रतीत होते हैं। मेरी जिह्वा बार-बार यह कहनेके लिये उद्यत-सी होती है कि ‘ये रहे मेरे भगवान्’।
मैं जो उनके सामने यह कहने के लिये जा रहा हूँ कि ‘मुझे कर दीजिये’, अपनी इस बातको मैं अत्यन्त दु:खजनक मानता हूँ तथा मैं इसे राजा हंसका अत्यन्त दुःसाहसपूर्ण वचन समझता हूँ । भगवान् विष्णु हंस को कर दें, उसकी आज्ञा का पालन और सेवा करें, ये सारी बातें मुझे उनके सामने जाकर कहनी पड़ेगी। निश्चय ही मैं बड़ा निर्दय हूँ । ‘हरे! विष्णो! यदुपुङ्गव! आप हंसको कर दीजिये ऐसी बात कहता हुआ मैं मूर्खा का अगुआ और निर्लज्ज समझा जाऊँगा। ‘आपको कर रूप में शीघ्र ही बहुत सा नमक देना होगा’ शार्ङ्गधन्वा श्रीकृष्ण के सामने ऐसी बात कहना मेरे लिये कदापि उचित न होगा ।
तथापि मित्रता के कारण मुझे ऐसा घोर वचन कहना होगा। पवित्रात्मा पुरुषों के लिये यह मित्रभाव भी कष्टप्रद ही होता है’। ‘अथवा भगवान् विष्णु सर्वज्ञ हैं। वे सबके हार्दिक भावको सदा जानते हैं और प्राणियोंके कल्याणमें तत्पर रहते हैं । ऐसी दशा में मेरा कोई दोष नहीं है; क्योंकि यह मित्रता ही मुझसे ऐसा कार्य कराती है। मैं जो घोर बात कहने के लिये उद्यत हुआ हूँ, उसके लिये भगवान् विष्णु सर्वथा मेरी रक्षा करें। जो सम्पूर्ण जगत्के स्वामी और रक्षक हैं, जिनके सिरपर काले घुँघराले केश शोभा पाते हैं, जो शङ्खके समान ग्रीवा धारण करते हैं तथा जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स-चिह्नसे आच्छादित है, उन भगवान् विष्णुका मैं दर्शन करूँगा।
जिनकी विशाल भुजाओं में पद्मरागमणि के आभूषण शोभा पाते हैं तथा जो कौस्तुभ आदि रत्नों की कान्ति से प्रकाशित होते हैं, उन सर्वव्यापी, चक्रधारी, यादवेश्वर श्रीकृष्णका मैं दर्शन करूँगा। जिनका वैभव अचिन्त्य है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान के स्वामी हैं, जो अपनी ही इच्छा से जगत्की रक्षा में तत्पर रहते हैं, उन एकार्णव के जल में शयन करने वाले श्रीनारायणदेव का मैं दर्शन करूँगा। उनका दर्शन करके मैं सर्वथा कृतार्थ हो जाऊँगा। मेरी सारी चिन्ताएँ तथा व्याधियाँ दूर हो जायँगी। आज श्रीहरिका साक्षात् दर्शन कर लेने पर मेरा जन्म सफल हो जायगा । आज श्रीहरि का साक्षात्कार करनेपर मेरे यज्ञ सफल हो जायँगे।
जगन्मय विष्णु का दर्शन करने से मेरे दोनों नेत्र भी सफल हो जायँगे । मैं भयंकर कर्म के लिये प्रस्ताव करनेवाला हूँ। उस समय भगवान् विष्णु मुझपर प्रसन्न रहें। क्या मैं अपनी खुली हुई दोनों आँखों से एक बार उन जगदीश्वर का दर्शन करूँगा। मैं नीचे से ऊपरतक बारम्बार भगवान् विष्णु का दर्शन करूँगा, दोनों नेत्रों से केवल श्रीकृष्ण के शरीर की रूपमाधुरी का पान करूँगा । तदनन्तर उनके चरणों से प्रकट हुई कल्याणमयी धूल को सिर पर धारण करूँगा। ऐसा करके कृतार्थ हो जाऊँगा, क्योंकि उनकी चरणरज स्वर्गका सोपान है। मैं श्रीहरि के मेघ की गम्भीर गर्जना के समान स्वर को सुनूँगा और चक्रधारी जगदीश्वर विष्णु के चरणारविन्द का दर्शन करूँगा।
पूर्ण चन्द्रमा के समान जो श्रीकृष्ण का मनोहर मुख है, उसका अवलोकन करूँगा। यह सारा जगत् श्रीहरि का ही रूप है, इस रूप में मैं सब ओर उन्हीं का दर्शन सा कर रहा हूँ। अनुचित बात कहने की इच्छावाले मुझ सेवक के ऊपर भगवान् विष्णु सदा प्रसन्न रहें। जिनके कानों में हिलते हुए कुण्डल जगमगा रहे हैं, जो हरिचन्दन से चर्चित हैं, चमकी ले बाजू बंदों में जड़े गये रत्नों की प्रभा से उद्भासित दोनों भुजाओं से जिनकी विशेष शोभा होती है, जिनके बायें हाथ में महान् पाञ्चजन्य शङ्ख देदीप्यमान है, जो किरणजाल से प्रकाशित हैं, उदयकाल के सूर्य के समान जिनकी सुनहरी कान्ति शोभा पाती है, जो सुदर्शन चक्र की ज्वालामालाओं से उद्भासित हैं, जिनके हाथों में जगमगाते हुए कङ्कण तथा तपे हुए सुवर्ण के बने बाजूबंद शोभा पाते हैं, जो रेशमी पीताम्बर धारण करते हैं तथा जिनकी छाती चौड़ी है, उन देवेश्वर अच्युतका मैं इस समय अथवा दूसरे समयमें कब दर्शन करूँगा । मैं सर्वथा कृतकृत्य हूँ; क्योंकि आज मैं श्रीहरि के साक्षात् शरीर को दर्शन करने के लिये उद्यत हुआ हूँ। मैं श्रीहरि का दर्शन करनेको कटिबद्ध हूँ, इसलिये मुझे नमस्कार है! मुझे नमस्कार है!!
शेषस्वरूप बलभद्र पर शयन करने वाले जगदीश्वर श्रीकृष्ण के दर्शन के लिये आज मैं उद्यत हूँ। उन विजयशील सर्वव्यापी जगद्गुरु श्रीकृष्ण का अवश्य आज ही मैं दर्शन करूँगा। जो श्री कौस्तुभमणि की प्रभा से प्रकाशित है, जिसका विशाल वक्ष:स्थल उसी कौस्तुभ एवं श्रीवत्सकी शोभासे उद्दीप्त हो रहा है, जिसने पीताम्बर धारण कर रखा है, जो मकराकार कुण्डल तथा कमलसदृश नेत्रों से सुशोभित है, जिसके मस्तकपर उत्तम किरीट और ऊपर उठे हुए हाथों में चक्र एवं गदा विराजमान हैं, श्रीहरि का वह श्यामवर्णमय तेजस्वी विग्रह मेरा कल्याण करनेवाला हो। विशद शास्त्ररूपी महान् सर्प (वासुकि) से जुड़े हुए निष्णात शुद्धबुद्धिरूपी मन्दराचल द्वारा मथे जाने वाले वेदरूपी समुद्र से जिसका प्राकट्य हुआ है तथा अमरगण निरन्तर जिसका सेवन करते हैं, उस नारायण नामक अमृतका आज मैं अपने नेत्रों द्वारा पान करूँगा । जो मुमुक्षुओं के द्वारा चिन्तन करने के योग्य, अप्रमेय, अनादि, अनन्त, स्थूल, अत्यन्त सूक्ष्म, एक, अनेक, आद्य, त्रिभुवन का जनक तथा देवताओं द्वारा एकमात्र वन्दनीय है, वह अच्युत नामक तेज सदा मेरे नेत्रों के समक्ष और हृदय में प्रकाशित होता रहे’ ।
इस प्रकार सोचते हुए विप्रवर जनार्दन अपने को कृतार्थ मानकर उस उत्तम अश्व को हाँकते हुए द्वारकापुरी में जा पहुँचे।
शेष अगले भाग में…