मूवी रिव्यू : द बिग बुल
निर्देशक : कूकी गुलाटी
विपुल रेगे। हर्षद मेहता एक दिलचस्प क़िरदार था। उस किरदार की जटिलताओं को रेशा-रेशा पेश करने की क्षमता क्या अभिषेक बच्चन में थी, जैसी प्रतीक गाँधी ने दिखाई थी। द बिग बुल देखते हुए यहीं सवाल मन में गूंजता रहा कि अभिषेक बच्चन का अशुद्ध गुजराती उच्चारण ही केवल इस बात का जवाब नहीं है, बल्कि वह सीमारेखा भी है, जहाँ अभिषेक हर्षद न हो पाए, अभिषेक ही बने रह गए। द बिग बुल एक रोचक केस की तरह फिल्म के विद्यार्थियों को पढ़ाई जा सकती है। उस पाठ्यक्रम में दो बातें सिखाई जा सकती है। पहली किसी चरित्र को निभाने के लिए बड़ी गहनता की आवश्यकता होती है और मुख्य किरदार ही मिस्कास्टिंग का शिकार हो जाए तो फिल्म धार खो देती है।
फिल्म निर्देशक कूकी गुलाटी की इस फिल्म की नींव ही मिस्कास्टिंग पर रख दी गई, जो कि इसकी सबसे बड़ी कमी के रुप में उभरकर आई है। अभिषेक बच्चन इस किरदार के लिए बिलकुल भी फिट नहीं होते। वास्तव में अभिषेक के पास किसी वास्तविक चरित्र को निभाने योग्य प्रतिभा की कमी है। मणिरत्नम के निर्देशन में उन्होंने गुरु और युवा में अवश्य एक स्पार्क दिखाया था लेकिन बाद के वर्षों में वह भी जाता रहा।
गुरु भी एक बॉयोपिक थी लेकिन यहाँ अभिषेक का व्यक्तित्व उस किरदार के अनुकूल था और हर्षद मेहता के किरदार के लिए उनका व्यक्तित्व ज़रा भी मेल नहीं खाता। ये फिल्म मिस्कास्टिंग का अनुपम उदाहरण है। ऐसा नहीं है कि अभिषेक ने अभिनय अच्छा नहीं किया है। उन्होंने अपने स्तर पर किरदार को निष्ठा से निभाया है लेकिन वे स्वयं का रूपांतरण नहीं कर सके।
इसके पहले हर्षद मेहता पर आई वेबसीरीज ‘स्केम 1992 : द हर्षद मेहता स्टोरी‘ को एक आदर्श बॉयोपिक माना जाता है। इस वेबसीरीज में प्रतीक गाँधी ने बड़ी जीवंतता से हर्षद मेहता को परदे पर प्रस्तुत किया था। हर्षद के किरदार को उन्होंने जैसे ओढ़ लिया था। प्रतीक की पृष्ठभूमि गुजरात की है इसलिए उनका गुजराती उच्चारण सहज और स्वाभाविक लगता है लेकिन अभिषेक के मामले में ऐसा नहीं है।
वे इस उच्चारण में फेल रहे हैं। फिल्म के कुछ आक्रामक दृश्यों में तो उन्होंने अपने पिता की ही कॉपी कर डाली है। निर्देशन के मामले में कूकी गुलाटी उथले पानी में ही तैरते दिखाई दिए। कथानक में कोई गहराई नहीं मिलती। हर्षद के किरदार को उन्होंने लार्जर देन लाइफ दिखाने का प्रयास किया। वहीं वेबसीरीज के निर्देशक हंसल मेहता ने इस किरदार को स्मरणीय बना दिया है।
इन सबके ऊपर बॉक्स ऑफिस को देखे तो हर्षद मेहता पर दूसरी फिल्म आनी ही नहीं चाहिए थी। बॉक्स ऑफिस का व्यावसायिक नियम ये कहता है कि एक विषय या व्यक्ति पर दोबारा फिल्म बनाई जाए तो दर्शक में रुचि नहीं जागती है। फिल्म के निर्माता अजय देवगन ने बॉक्स ऑफिस पर ज़ोखिम लिया है। एक निर्माता होने के नाते उनका इस फिल्म पर पैसा लगाना सही निर्णय नहीं माना जाएगा।
फिल्म किरदार भी मिस्कास्टिंग का शिकार हुए है। जैसे राम जेठमलानी का किरदार राम कपूर को दिया गया। वे इस किरदार के लिए उचित पात्र नहीं थे। ऐसे ही महेश मांजरेकर को बर्बाद ही किया गया। इस फिल्म में अच्छे कलाकारों से जो काम लिया जा सकता था, नहीं लिया गया। सौरभ शुक्ला से और उत्कृष्ट काम लिया जा सकता था।
ये एक डल फिल्म है, जो दर्शक में कोई उत्साह नहीं जगाती। वैसे भी हर्षद मेहता की कथा में ऐसा कुछ नहीं, जो दर्शक अपने साथ घर ले जा सके। ये तो वेबसीरीज के निर्देशक हंसल मेहता की योग्यता थी, जो एक कुख्यात व्यक्तित्व को लेकर उन्होंने एक दर्शनीय वेबसीरीज बना डाली।
अजय देवगन को विचार करना चाहिए कि क्या वे जितने अच्छे अभिनेता हैं, उतने ही अच्छे फिल्म निर्माता हैं? कुल मिलाकर ये फिल्म प्रभावी नहीं बन सकी। बॉक्स ऑफिस पर बॉलीवुड के बहिष्कार का कुछ असर अभिषेक बच्चन की इस फिल्म पर भी देखने को मिल रहा है। बॉलीवुड को उबरने के लिए दो चीजे चाहिए। बॉलीवुड पर अधिकार जमाए बैठे लोगों से मुक्ति और अच्छा कंटेंट।