विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा’ में दहशत दिखाई देती है, दहशतगर्द नहीं। गोलियां दिखाई देती हैं, बंदूक नहीं। घर जलते हैं लेकिन जलाने वाले हाथ दिखाए नहीं जाते। मानो ये दहशत बिना सिर-पैर की है। जैसे कश्मीर में बरपा आतंक सरहद पार से हवा के साथ चला आया हो।
कश्मीरी पंडितों की त्रासदी पर बनी ‘शिकारा’ आधी-अधूरी सी लगती है। ऐसा लगता है निर्देशक ने कश्मीरी कबालियों से ‘सॉरी’ बुलवाने की जगह इस फिल्म के जरिये उनसे ही माफ़ी मांग ली है। ये एक सहमी सी फिल्म है, जो कश्मीरी पंडितों की व्यथा को गहरी धुंध में छुपा देती है। ये किसी पर ऊँगली नहीं उठाती। न आतंकवाद पर, न पंडितों के नरसंहार पर कोई साहसी प्रश्न करती है।
शिवकुमार धर और उसकी पत्नी शांति धर खुशहाल वैवाहिक जीवन बीता रहे हैं। कश्मीर की वादियों में असंतोष पनपता दिखाई दे रहा है। आतंकियों से सेना और पुलिस की मुठभेड़ बढ़ती ही जा रही है। ऐसी बातें चलने लगी है कि पंडितों को कश्मीर छोड़ कर जाना होगा। शिव के दोस्त लतीफ़ के पिता की एक प्रदर्शन के दौरान मौत हो जाती है और वह आतंक के रास्ते चल देता है। एक रात शांति अपने घर की खिड़की से बाहर झांकती है तो उसे वादी जलती दिखाई देती है। शिवकुमार का पूरा परिवार कश्मीर छोड़ देता है। उनका बाकी का जीवन रिफ्यूजी कैम्प में बीतता है।
निर्देशक ने कश्मीरी पंडितों की पीड़ा को इस कहानी का ‘बैकड्रॉप’ बना दिया है। ये सारे कश्मीरी पंडितों की नहीं बल्कि एक ही परिवार की कहानी कहती है। ऐसा परिवार जो आतंक का चेहरा तक नहीं पहचान सकता।
So Shikara is another ‘Mission Kashmir’
इस फिल्म से अपेक्षा थी कि वह कश्मीर के बाशिंदों से ज्वलंत प्रश्न करती। ये फिल्म पूछती कि जब पंडित निकाले जा रहे थे तो उनके पड़ोसी ठहाके क्यों लगा रहे थे? फिल्म पूछती कि आतंक का मुखौटा लगाकर ख़ुशी से चहकती घाटी को क्यों बर्बाद कर दिया गया? फिल्म को ये भी पूछना चाहिए था कि जिन लोगों ने उन्हें पनाह दी, उनके ही खून के प्यासे क्यों हो गए कश्मीरी। लेकिन अफ़सोस कि विधु विनोद की ये फिल्म ऐसा कोई सवाल नहीं कर पाती।
अस्सी-नब्बे के दशक में अचानक ऐसा क्या हो गया था कि एक ख़ास वर्ग से कश्मीरी नफरत पालने लगे थे। जिन प्रश्नों की इस फिल्म से अपेक्षा थी, वे नहीं पूछे गए। बेहद नीरस कहानी, जो जलते कश्मीर से शुरू होकर एक भ्रामक अंत के साथ समाप्त हो जाती है।
अब फिल्म के कुछ अच्छे दृश्यों की बात करते हैं। शिव कुमार जब एक साल बाद कश्मीर में अपने घर को देखने आता है तो वह घर नहीं मकान हो चुका है। शिव और शांति की कोई निशानी उस घर में बाकी नहीं है। दीवारों का रंग तक हरा कर दिया गया है। वहां ऐसा कोई कोना नहीं बचा, जहाँ शिव और शांति की जिंदगी की कोई याद कहीं पसरी हो। बेहद मार्मिक दृश्य है। एक अन्य दृश्य में शांति बस में सफर कर रही है और उसे सिर ढंकने की धमकी दी जाती है।
एक दृश्य वह है जब बदली हुई वादी में शिव अपनी पत्नी के साथ लौटा है और पार्श्व में गीत गूंज रहा है ‘ए वादी शहजादी कैसी हो’। इस फिल्म की सबसे बड़ी समस्या यही है कि ये चंद लम्हों के लिए दिल को छूती निकल जाती है, बस दिल में नहीं घुस पाती।
शिव कुमार धर (आदिल खान ) और उनकी पत्नी शांति धर (सादिया खान) ने अपनी पहली फिल्म में अच्छा अभिनय किया है। खासतौर से सादिया ने कैमरे के सामने भरपूर आत्मविश्वास दिखाया है। बाकी कलाकार औसत ही रहे हैं। सिनेमेटोग्राफी बहुत सुंदर है। कश्मीर की वादियों को विधु विनोद ने नए कोणों से फिल्माया है। निर्देशन सरस है लेकिन प्रभाव नहीं छोड़ पाता।
कुल मिलाकर ‘शिकारा’ कश्मीरी पंडितों की त्रासदी की एक हलकी सी झलक ही पेश कर पाती है। नरसंहार के दृश्य आधे-अधूरे क्रिएट किये गए हैं ताकि विवाद से बचा जा सके। हालांकि दर्शक विधु विनोद से सच दिखाने की अपेक्षा करता था। उन्होंने सच तो दिखाया लेकिन चालबाजी के कुहासे में लपेट कर दिखाया। जब आप न दहशतगर्दों का चेहरा दिखा सको, न उनसे साहसिक प्रश्न कर सको, तो यही कहा जाएगा कि आपका ये शिकारा ‘डल झील के उथले पाट में फंसकर रह जाता है। विधु विनोद की बदनीयती उसे आगे नहीं बढ़ने देती।’
Shikara | Official Trailer | Dir: Vidhu Vinod Chopra
इस फ़िल्म का डिरेक्टर जब NDTV पर प्रोमोशन करने गया तभी मुझे समझ मे आ गया,की क्या फ़िल्म होगी।