विपुल रेगे। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर अब सेक्स और वर्जिनिटी पर आधारित फ़िल्में प्रदर्शित होना आज का न्यू नॉर्मल बन चुका है। पहले गुस्सा आता था लेकिन अब घिन आने लगी है। केंद्र सरकार द्वारा जारी किये दिशा-निर्देशों का ये असर हुआ है कि बॉलीवुड के फिल्म निर्माता अब बिना ख़ौफ़ भारत के युवाओं को गंदगी परोस रहे हैं। भंसाली प्रोडक्शन की इस फिल्म में स्त्री-पुरुष के संबंधों को लेकर नए मापदंड बनाने के प्रयास दिखते हैं। भावी जीवन साथी में निष्ठा की खोज करती ये फिल्म वास्तव में अपनी नींव में ही अनैतिक है।
एक लड़की या एक लड़का अपने जीवनसाथी में वफ़ादारी और विश्वास चाहता है। कम से कम एशिया के इस देश में तो आज भी अपने जीवनसाथी में यही गुण देखे जाते हैं। अपना साथी चुनने की एक सहज, स्वाभाविक प्रक्रिया को इन फिल्मों ने कितना जटिल बनाकर रख दिया है। ये समझना मुश्किल है कि समाज इन्हे देखकर बदलता है या समाज को देखकर बदलते हैं।
कुछ नासमझ कहते हैं फ़िल्म समाज का आइना होती है। Tuesdays & Fridays देखकर तो ऐसा नहीं लगता। ऐसा उन्मुक्त समाज हमारे यहाँ कहीं देखने को नहीं मिलता। इस फिल्म में मुख्य पात्र वरुण और सिया रिलेशनशिप में हैं लेकिन ये कुछ समय के लिए अनुबंध जैसी है। ठीक लगा तो आगे साथ रहेंगे वरना टाटा-बाय बाय। इन दोनों की रिलेशनशिप को एक बार भी गंभीरता से किसी परिणाम तक नहीं पहुँचने दिया जाता।
दोनों ही अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि के कारण अपने रिश्ते को नाम देने से बचते हैं। सिया की माँ भी एक रिलेशनशिप में हैं और अपने प्रेमी से विवाह करना चाहती है। सही मायने में तो आदर्श रिलेशनशिप सिया की माँ की दिखाई गई है। उसका प्रेमी अपनी प्रॉपर्टी बेचकर उसके साथ उसके घर में रहने के लिए तैयार है। और वह अपनी प्रेमिका के साथ उसके घर इसलिए आना चाहता है क्योंकि उस घर से प्रेमिका की यादें जुड़ी है।
वरुण और सिया तो दो साल साथ रहने का निर्णय लेते हैं और शादी को भविष्य पर छोड़ देते हैं। फिल्म में एक कैरेक्टर और है। वह सिया की बहन है। ये कैरेक्टर प्रेमी के साथ वर्जिनिटी भंग करने का उत्सव मना रही होती है। बॉलीवुड ऐसी वाहियात फ़िल्में परोसता है और कहता है हम समाज से कहानियां उठाते हैं।
वह तथाकथित समाज आखिर है कहाँ, जहाँ से वे ये कहानियां उठा रहे हैं। फिर मैं दक्षिण भारतीय सिनेमा, बंगाली सिनेमा और मराठी सिनेमा को देखता हूँ तो पता चलता है कि भारत का सही चित्रण तो वे कर रहे हैं। ओटीटी प्लेटफॉर्म एक लॉन्च पेड बन गया है। भारत की संस्कृति पर आक्रमण करने का एक जरिया, जहाँ से सांस्कृतिक टेरिरिज्म लॉन्च किया जा रहा है। ये प्रश्न विचारणीय है कि इस तरह की फ़िल्में केवल हिन्दी फिल्म उद्योग ही क्यों बना रहा है, दूसरी भाषाओँ की फ़िल्में इस तरह की गंदगी क्यों नहीं परोस रही है।