विपुल रेगे। ओशो से जुड़े बहुत से लोग अभी जीवित हैं। उनमें से कुछ ऐसे हैं, जो उनके बहुत समीप रहे। माँ आनंद शीला उनमें से एक हैं, जिन्होंने ओशो जैसे प्रखर व्यक्तित्व को बहुत क़रीब से जाना। विगत शताब्दी की दार्शनिक उपलब्धियों की बात होगी तो ओशो का नाम सदैव लिया जाएगा, भले ही उनके साथ बहुत से विवाद जुड़े हो। वे स्वयं कहते थे ईश्वर के पास जाने के अनगिनत मार्ग हो सकते हैं, आपको अपना चुनना है। हालांकि ओशो की निजी सचिव रहीं माँ आनंद शीला को मोक्ष प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं थी। उनके मुताबिक वे तो ओशो से निःस्वार्थ प्रेम करतीं थीं। एक ऐसा रहस्यमयी व्यक्तित्व, जिस पर करण जौहर के धर्मेटिक एंटरटेनमेंट ने एक डाक्यूमेंट्री इन सर्चिंग फॉर शीला का निर्माण किया है।
स्विट्ज़रलैंड के एक छोटे से घर में 71 वर्षीय शीला एक शांत सा निर्वासित जीवन बीता रही हैं। वे अब निराश्रित बुजुर्गों की सेवा करती हैं। हालांकि अब उन्हें स्वयं ही सेवा की आवश्यकता पड़ने लगी है। जीवन का वर्तुल घूमकर अपने जन्म बिंदु की ओर आ रहा है। इस अंतिम चरण में शीला एक बार भारत आना चाहती हैं। गुजरात के पारिवारिक घर जाना चाहती हैं और अपने बारे में लोगों को बताना चाहती है।
करण जौहर की कंपनी माँ शीला जैसे व्यक्तित्व पर एक वृत्तचित्र बनाने का निर्णय लेती है। ये डाक्यूमेंट्री उस शीला की खोज करती है, जिसके प्रखर व्यक्तित्व की प्रशंसा कभी उसके शत्रु भी किया करते थे। हालांकि डाक्यूमेंट्री शीला के जीवन में गहरे नहीं उतर पाती। शीला जैसे लोग वह बंद द्वार हैं, जिन्हें खोलकर आज भी आप ओशो के जीवन के किसी अध्याय में प्रवेश कर सकते हैं।
लेकिन डाक्यूमेंट्री उन दरवाज़ों को खोल ही नहीं पाती। जब माँ आनंद शीला भारत आती हैं और निर्माता करण जौहर से मिलती हैं तो वे कहते हैं ‘मैं आपसे कठिन प्रश्न करने वाला हूँ।’ और फिर जौहर अपना स्वाभाविक प्रश्न करते हैं ‘क्या आपने ओशो के साथ शारीरिक संबंध स्थापित किये थे?’ कॉफी विद करण से आप ऐसे ही प्रश्नों की अपेक्षा कर सकते हैं।
डाक्यूमेंट्री केवल इस बात की खोज करती है कि क्या शीला के ओशो से शारीरिक संबंध थे, क्या शीला भी ओशो पर हुए बायोटेरर अटैक में सहभागिनी थी, क्या शीला एक स्त्री होने के नाते ये अनुभव नहीं करती कि एक पुरुष होने के नाते ओशो ने उन पर अन्याय किये थे। शीला ने इन आरोपों का सामना कुशलता से किया। वे विगत तीस साल से यही करती आ रहीं हैं।
वे इस प्रश्नोत्तरी में कुशल हो चुकी हैं। बरखा दत्त उनको भड़काने के लिए प्रश्नों को नारीवाद की परखनली में डालकर पूछती हैं। कुल मिलाकर ये डाक्यूमेंट्री निष्ठापूर्वक शीला के व्यक्तित्व को छानकर ओशो तक पहुँच ही नहीं पाती। शीला उन प्रचलित प्रश्नों से कुछ असहज होती हैं लेकिन फिर ये भी समझती हैं कि करण जौहर और बरखा का स्तर क्या है।
फिर उनके जवाब भी रहस्य की परतों में लिपटे हुए आते हैं। शीला एक दिलचस्प शख़्सियत हैं। उन्होंने ओशो के साम्राज्य को बड़ी ही कुशलता से संचालित किया था। क्या वे भी उस समय ओशो के असीम ऊर्जा से भरे ओरा से शक्ति पा रहीं थीं, जैसे कि ओशो के आसपास रहने वाले लोग अनुभव करते थे। इस डाक्यूमेंट्री का एक कुत्सित प्रयास मुझे दिखाई पड़ता है। ओशो के प्रचलित ओरा को तोड़कर उन्हें एक साधारण मनुष्य के रुप में प्रस्तुत करने का प्रयास था।
शीला के मुंह से वे कुछ ऐसा निकलवाना चाहते थे, जो उनकी डाक्यूमेंट्री का सेलिंग पॉइंट बन जाता और ओशो की सहज स्वाभाविक छवि को वे दूषित कर पाते। हालांकि शीला ने कहीं पर ओशो के लिए ऐसी कोई बात नहीं कही। उन्होंने ये अवश्य कहा कि वे ओशो के प्रेम में थीं, और जब मुझे ओशो का प्रेम मिल रहा था तो शरीर की बात तो सोची ही नहीं जा सकती।
58 मिनट की ये डाक्यूमेंट्री शीला की तलाश में तो निकलती है लेकिन बायोटेरर अटैक, शारीरिक सीमाओं और नारीवाद के दलदल में फंसी रह जाती है। इस समय स्विट्जरलैंड के अपने कॉटेज में गर्म कॉफी के घूंट लेती माँ आनंद शीला सोच रही होगी कि भारत की ये यात्रा उनके मन के कुछ बंद दरवाज़ों को खोल सकती थी, यदि ये तामझाम जौहर एन्ड कंपनी के हाथ में नहीं होता। माँ आनंद शीला का मयार उन्हें दलदल से बचा लाया।