विपुल रेगे। भारतीय सेना के शौर्य और साहस का बखान करती ‘पिप्पा’ 10 नवंबर को ओटीटी पर रिलीज हुई है। भारतीय सेना द्वारा बांग्लादेश को स्वतंत्र कराने की इस कथा में ‘पिप्पा टैंक’ एक प्रतीक बनकर उभरता है। ईशान खट्टर, मृणाल ठाकुर और प्रियांशु पैन्यूली के अभिनय और राजा मेनन के निर्देशन में बनी ‘पिप्पा’ प्रशंसा बटोर रही है। हालांकि इस पीरियड ड्रामा में कुछ कमियां रह गई है, लेकिन इसके बावजूद ये फिल्म भारतीय सेना के प्रति नागरिकों की आस्था में और बढ़ोतरी करती है।
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‘पिप्पा’ ब्रिगेडियर बलराम सिंह मेहता द्वारा लिखी गई किताब ‘The Burning Chaffees’ के आधार पर बनाई गई है। सन 1971 के युद्ध को पृष्ठभूमि बनाकर तीन भाई-बहनों की कहानी को सामने रखा गया है। ‘पिप्पा’ बलराम सिंह मेहता की आत्मकथा कही जा सकती है। 1971 का युद्ध भारत के पूर्वी मोर्चे पर लड़ा गया था। इस लड़ाई में ब्रिगेडियर बलराम 45वें कैवलरी टैंक स्क्वाड्रन में तैनात थे। बलराम को रुस में निर्मित पिप्पा टैंकों की अच्छी जानकारी थी।
वे तकनीकी रुप से इस टैंक को बेहतर जानते थे। रुस के इस शानदार टैंक का नाम पीटी 76 एमबिफियस था। ये उभयचर टैंक था। जमीन पर चलने के साथ ये टैंक पानी पर मज़े से तैर लेता था। इसकी इस खूबी के चलते भारतीयों ने इसे ‘पिप्पा’ नाम दिया। उस वक्त भारत में घी के कनस्तर को पिप्पा कहा जाता था। बलराम सिंह अपनी कहानी में अपने परिवार की कहानी भी दिखाते हैं। निर्देशक राजा मेनन ने फिल्म का एक बड़ा हिस्सा परिवार की कहानी पर खर्च किया है।
बलराम के बड़े भाई और बहन की कहानी भी साथ चलती है। बलराम उर्फ़ बल्ली एक सैनिक अवश्य है लेकिन अपरिपक्व युवा है। इसी कारण परिवार से उसके मतभेद बने रहते हैं। अनुशासनहीनता के चलते बल्ली को फ्रंट पर लड़ने नहीं भेजा जाता। बल्ली का बड़ा भाई भी सैनिक है, जो उसकी इस आदत से नाराज़ रहता है। परिस्थितियां बदलती हैं और बल्ली को बांग्लादेश युद्ध में फ्रंट पर भेजा जाता है। जब तक फिल्म युद्ध में रहती है, मनोरंजक रहती है लेकिन बल्ली के परिवार की कहानी आते ही इसका पेस स्लो हो जाता है। लगभग आधी से अधिक फिल्म में बल्ली का निजी जीवन दिखाया गया है।
समाप्ति के लगभग आधा घंटा पूर्व फिल्म अपने ‘ताव’ पर आती है। अंतिम आधे घंटे में फिल्म न केवल नुकसान पूरा करती है, बल्कि एक अच्छे अंत की ओर बढ़ती है। इस पीरियड ड्रामे में तात्कालिक घटनाक्रम विस्तार से दिखाया गया है। बांग्लादेश युद्ध क्यों शुरु हुआ, इस पर ये फिल्म विश्वसनीय जानकारियां देती है। एक्शन दृश्य वास्तविक लगते हैं। पिप्पा टैंक के पानी पर चलने वाले दृश्य रोमांचकारी लगते हैं। युद्ध को वास्तविक दिखाने के लिए निर्देशक ने वीएफएक्स से अधिक ज़िंदा आदमियों पर भरोसा जताया है।
निर्देशक राजा मेनन ने एक संतुलित फिल्म बनाई है। उनसे बस एक ही गलती हुई है। उन्होंने परिवार की कहानी को बहुत अधिक फुटेज दिया है। हालाँकि अंत में निर्देशक फिल्म को संभाल लेते हैं और डेमेज कंट्रोल भी करते हैं। ईशान खट्टर प्रतिभाशाली हैं। वे फिल्म दर फिल्म निखरते जा रहे हैं। बलराम सिंह मेहता के किरदार को ईशान ने रोचक अंदाज़ में निभाया है। वे इस बात की आश्वस्ति देते हैं कि भविष्य में बॉलीवुड में उनका एक विशेष स्थान होगा। मृणाल ठाकुर का किरदार असहज लगता है। इस किरदार को ठीक से उभारा नहीं गया है। इसी के चलते मृणाल अभिनय में भी असहज रही हैं। बलराम के बड़े भाई के रुप में प्रियांशु पैन्यूली प्रभावित करते हैं। हालाँकि उनकी कद-काठी एक सैनिक जैसी नहीं लगती।
‘पिप्पा’ हमें मनोरंजन कम एजुकेशन अधिक देती है। ये फिल्म हमें 1971 के युद्ध में भारतीय सेना के शौर्य के बारे में बताती है। फिल्म के अंत में जब टाइटलिंग चलती है तो स्क्रीन पर उस युद्ध के वास्तविक दृश्य उभरते हैं। निर्देशक को आभार कि उन्होंने इतने पुराने फोटग्राफ्स फिल्म के साथ साझा किये हैं। ये फिल्म हमें उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के साहस के बारे में भी बताती है। इतिहास के बारे में फ़िल्में बनती रहनी चाहिए, नहीं तो आजकल देश को 2014 में स्वतंत्र कराने वाले बहुत घूम रहे हैं।