वर्तमान वैश्वीकरण , उदारीकरण और निजीकरण के युग में एक युवती की यह कविता उसके मनोभावों को अभिव्यक्त करती है। सूर्य नामक यह कविता एक प्रेमिका के लिए उसके प्रेमी का प्रतिबिंब है । भौतिकतावादी इस युग में त्राहि-त्राहि कर रही जनता के लिए सूर्य सु – शासन का प्रतिबिंब है। आध्यात्मिक स्वभाव वाले व्यक्तियों के लिए सूर्य ईश्वर से मिलन का प्रतिबिंब है । व्यक्ति विशेष के लिए यह कविता स्वयं का स्वयं से संवाद का प्रतिबिंब है । सूर्य नामक प्रतिमान की इसी विविधता के कारण यह कविता और भी विशिष्ट हो जाती है । आइए इस कविता को पढ़कर आनंद में खो जाते हैं :
संघर्षों के महासागर से
उछाल मारना चाहती हूँ,
चमत्कार की एक झलक देखना चाहती हूँ ,
हाँ! मैं सूर्य की दिशा मोड़ना चाहती हूँ ।
सूर्य झूलस गया है,
लाचार हो गया है
उसकी विरह वेदना को
शान्त करना चाहती हूँ ।
बादलों को देख कर
खुश हो जाया करती थी कभी,
सूर्य से मिला जब बादलों का उपहार
खुल के आज रुदन करना चाहती हूँ ।
दिशा तो बदलनी होगी उसकी
नदिया के पार तो ले जाना ही होगा,
मेरी गोदी में आया है जो वो
मुझे प्रेम तो करना ही होगा ।
डूबो देना है अबकी बार सूर्य को
सागर के बीचों- बीच
उसके सारे ताप को हर लेना है,
वर्षों से वह तप रहा उसको शीतलता देना है ।
देख जरा सूर्य मेरे
उस नीले गगन में तुझे,
कुछ दिखाई देता है क्या?
एक श्वेत प्रतिबिम्ब,
मिलन को आतुर है ।
जा कर अपनी धधकती आग बुझा
अबकी बार तू भी ठंडा हो जा,
बूंदें पड़ने देना अपने ऊपर खूब
अब कोई छाता न तान लेना ।
तेरे चेहरे का तेज लाना है
फिर अपनी किरणों को
मन भर के बिखेरना,
अपनी धरा के चारों ओर ।
कवयित्री
श्वेता श्रीवास्तव
शोध छात्रा , गोविंद वल्लभ पंत सामाजिक संस्थान , प्रयागराज