विपुल रेगे। सुपरहीरो बनाने वाली मार्वल की भट्टी में तपकर एक और नया सुपरहीरो बाहर आया है। इस बार मार्वल का सुपरहीरो चीन की धरती से आया है। जहाँ एक ओर संसार चीन की दी गई बीमारी से परेशान है, तो वही चीनी सुपरहीरो विश्वभर में प्रशंसा बटोर रहा है। वास्तविकता के कठोर धरातल से इतर परी कथाओं में तो एक चीनी को नायक बनाया ही जा सकता है। मार्वल स्टडियोज की ‘शांग ची एंड द लीजेंड ऑफ़ टेन रिंग्स’ का विश्वभर के प्रशंसकों ने अभिनंदन किया है। मार्वल की तीक्ष्ण बुद्धि जानती है कि सिल्वर स्क्रीन पर कोई सुपरहीरो कैसे जन्म लेता है।
सन 1973 में पहली बार शांग ची मार्वल की कॉमिक्स में दिखाई दिया था। Xu Wenwu के पास एक रहस्यमयी हथियार है। दस रिंग्स वाले इस हथियार के कारण उसने आयु पर विजय प्राप्त कर ली है। वह सैकड़ों वर्ष से जीवित है। एक बार वह एक छुपे प्राचीन गांव में घुसने का प्रयास करता है। गांव की पहरेदार एक सुंदर स्त्री उसे सहज ही पराजित कर देती है। दोनों में प्रेम हो जाता है।
उनकी दो संतान होती है, जिनमे से एक शांग ची है। संसार को जीतने की जिद Xu Wenwu को हैवान बना देती है। उसके दुश्मन एक दिन उसकी पत्नी को मार देते हैं। वह अपनी संतान को भी अपना जैसा बनाना चाहता है किन्तु शांग के भाग्य में कुछ और बनना लिखा है। मार्वल स्टूडियोज की ये प्रस्तुति विश्व के सभी देशों में विजय पताका फहरा रही है।
भारत में ये फिल्म दस करोड़ से अधिक का कलेक्शन कर चुकी है। ऐसी ओपनिंग विगत दो वर्ष में किसी हिन्दी भाषा की फिल्म को नहीं मिली है। निर्देशक Destin Daniel Cretton ने एक संतुलित फिल्म बनाई है। मार्वल का टारगेट ग्रुप 10 से 20 आयुवर्ग का है और उन्होंने इस वर्ग के लिए अत्यंत मनोरंजक फिल्म बनाई है। शांग ली में वह दम है कि वह मार्वल के अन्य सुपरहीरोज की कतार में खड़ा हो सकता है।
कोरोना काल में फिल्म उद्योग भयंकर ढंग से प्रभावित हुआ है और विगत दो वर्ष से थियेटर बंद रहे। जब थियेटर खुले तो हिन्दी पट्टी के लिए कोई मनोरंजक फिल्म नहीं आई। विगत दिनों आई ‘शेरशाह’ ने ही पिछले दो वर्ष में निर्माता को लाभ देने वाला व्यवसाय किया है। शांग ची ने सिद्ध किया है कि थियेटर्स मरे नहीं हैं। भारत के दर्शकों ने इसका दिल खोलकर स्वागत किया है।
लगभग दो घंटे की फिल्म न केवल परिवार के साथ देखने योग्य है, अपितु भरपूर मनोरंजन भी देती है। पश्चिम और पूरब के सिनेमा में बड़ा अंतर आ गया है। पश्चिम का सिनेमा पुनः ऐसी फिल्मों की ओर लौट रहा है, जो परिवार के साथ देखी जा सकती हो और पूरब का सिनेमा दिनोदिन वयस्क और बोझिल होता जा रहा है। वे समझने लगे हैं कि मनोरंजन के साथ एजेंडा को मिक्स नहीं किया जा सकता। वे यदि एजेंडे वाली फ़िल्में बनाते तो आज मार्वल और डिज्नी को ऐसी विश्वस्तरीय सफलताएं नहीं मिल सकती थी।