फिल्म समीक्षा : द व्हाइट टाइगर
अरविंद अडिग की किताब ‘द व्हाइट टाइगर’ पर बनी फिल्म पर कुछ लिखने से पूर्व इस किताब के पन्नों को पलटना आवश्यक है। ये देखना आवश्यक हो जाता है कि किसी लेखक की कोई रचना नैतिकता के आधार पर सही ठहरती है या नहीं। किताब को एक ऐसे लेखक ने लिखा है, जो मद्रास में जन्मा और प्राथमिक पढ़ाई करने के बाद विदेश चला गया। स्पष्ट है कि जो भारत अरविंद की किताब में दर्शाया गया है, वह अस्सी के दशक में ऐसा हुआ करता था।
किताब से ये भी महसूस हुआ कि बहुत लंबे समय से अरविंद को तेज़ी से बढ़ते भारत का कोई ज्ञान नहीं था। ये किताब उन्होंने 2007 में लिखी थी। इस हिसाब से उनके दर्शाए भारत के चित्र में तर्कसंगत गलतियां भरी पड़ी हैं। मद्रास के निवासी अरविंद का ग्रामीण ज्ञान भी मुझे अचंभित कर गया। उनके अनुसार हर भारतीय युवा को उसके परिवारजन एक एटीएम मशीन की तरह देखते हैं, जो पैसा उगलती रहे।
ऐसा ज्ञान वे ऑस्ट्रेलिया में बैठकर कहाँ से लाए, ये प्रश्न विचारणीय है। इस कहानी पर बनी फिल्म को ऐसा ही होना था, बल्कि और भी भयंकर होना था। ये स्वाभाविक था कि भारत की छवि को नकारात्मक दिखाने वाली कहानी को भरकस और भी नकारात्मक बनाने का प्रयास निर्देशक करेगा। ‘द व्हाइट टाइगर’ की विषय वस्तु ऐसी है कि वह पाठक को कोई उत्साह नहीं देती। सबसे नकारात्मक इस किताब का अंत है, जो पाठक को एक कुहासे में ले जाता है।
पाठक एक बोझ सा महसूस करता है। वह बोझ इस फिल्म को देखते हुए भी अनुभव होता है। बलराम हलवाई एक छोटे से गांव में रहता है। यहाँ उसके पिता कोयले के कारखाने में काम करते हैं। वह एक प्रतिभाशाली बच्चा है। पिता के निधन के बाद उसे घर का सहयोग देने के लिए पढ़ाई छोड़ काम करना पड़ता है। एक दिन उसके गांव लक्ष्मणगढ़ में कारखाने के मालिक का बेटा अशोक आता है। बलराम जुगाड़ कर उसका ड्राइवर बन जाता है और उसकी सफलता की कहानी शुरु होती है।
ये एक ग्रामीण बालक की कथा है, जो ‘हॉफ बेक्ड’ रह गया है। इस प्रतिभाशाली अनपढ़ की यात्रा एक निर्मम हत्या पर समाप्त होती है। बलराम की समूची सफलता एक हत्या के कारण है। यही वह पॉइंट है, जहाँ अरविंद अडिगा का बूकर पुरस्कार प्राप्त उपन्यास तर्क के समुद्र संघर्ष करता डूब जाता है। एक अपराधी समाज के लिए किस तरह प्रेरणादायी हो सकता है। एक दूसरी आपत्ति है, जो इस किताब के आने के बाद दर्ज हुई थी। अरविंद की किताब को बूकर इसलिए ही मिला क्योंकि उन्होंने अधनंगा भारत दिखाया था।
उधर पश्चिम में आपको बूकर या ऑस्कर पाना हो तो यही रास्ता अपनाना पड़ता है। जब आप अधनंगा और भूखा भारत दिखाएंगे, तभी आपको ऐसे प्रतिष्ठित पुरस्कार दिए जाएंगे। मुझे इस फिल्म के अनेक दृश्यों से आपत्ति है। मुझे दुसरा आश्चर्य ये हुआ कि देश के सूचना व प्रसारण मंत्रालय की गठित संदिग्ध समिति से भी इस फिल्म के दृश्य कैसे चूक गए। बलराम ड्राइवर बनने के बाद घर आया है। उसकी दादी पैसे न भेजने के कारण उसका अपमान कर रही है।
दूसरे दृश्य में बलराम का भाई नोट गिन रहा है और उलाहना देने वाली दादी ने उसके लिए चिकन बनाया है। जब वह खाना खाने से इंकार कर देता है तो दादी अपनी लाठी से थाली को उसकी ओर सरकाती है। लाठी से थाली सरकाने का दृश्य पैनिक फैलाने के लिए क्लोज कर दिखाया गया है। हमारी संस्कृति तो प्रारंभ से ऐसी नहीं रही कि घर की बुजुर्ग महिला इस तरह अपने पोते को खाना खिलाए।
अरविंद की किताब पर बनी इस फिल्म को देखना एक ‘शॉकिंग एक्सपीरियंस’ है। इससे उपजा नैराश्य बहुत देर तक दिमाग पर छाया रहता है। इसका समग्र प्रभाव तेज़ाबी है, जो भीतर से आपको जला देता है। ये फिल्म कोई सुखद अनुभूति नहीं देती। एक भारतीय होने के नाते मैं इस फिल्म को देखने की सलाह दर्शकों को कभी नहीं दूंगा।