श्वेता पुरोहित। अगस्त्य संहिता का ये अध्याय आज के समय में बहुत प्रासंगिक है. इन श्लोकों में अगस्त्य मुनि ने ऐसे गुण वाले शिष्य बताएं हैं जो त्याज्य होते हैं.
अलसा मलिनाः क्लिष्टाः दाम्भिकाः कृपणास्तथा ।
दरिद्रा रोगिणोत्कृष्टा रोगिणो भोगलालसाः ॥
जो पुरुष आलसी, अत्यन्त मलिन रहने वाला, अहङ्कारी, कंजूस, दरिद्रता से पीड़ित रहने वाला, रोगी रहने वाला, भोग-विलास में अनुरक्त रहने वाला – यदि ऐसा शिष्य गुरु ने बिना जाने बना लिया हो तो उसे त्याग देना चाहिए ।।
असूया मत्सरग्रस्ताः शठाः परुषवादिनः ।
अन्यायोपार्जितधनाः परदाररताश्च ये ॥
दूसरों के गुणों में दोषारोपण करने वाला, दूसरों से द्वेष रखने वाला, धूर्त, कठोर वचन बोलने वाला, अन्याय से धन कमाने वाला, पराई स्त्री में अनुरक्त रहने वाला – यदि ऐसा शिष्य गुरु ने बिना जाने बना लिया हो तो उसे त्याग देना चाहिए ॥
विदुषां वैरिणश्चैव ह्यज्ञापण्डितमानिनः ।
भ्रष्टव्रताश्च ये कष्टवृत्तयः पिशुनाः खलाः ॥
और विद्वानों का बैरी, मूर्ख, अपने को पण्डित मानने वाला, भ्रष्टाचारी, क्रोधी बुद्धि वाला, चुगलखोर, दुष्ट- यदि ऐसा शिष्य गुरु ने बिना जाने बना लिया हो तो उसे त्याग देना चाहिए ॥
बह्वाशिनः क्रूरचेष्टाः दुरात्मानश्च निन्दिताः ।
इत्येवमादयोऽप्यन्ये पापिष्ठाः पुरुषाधमाः ॥
बहुत मात्रा में भोजन ग्रहण करने वाला, क्रूर चेष्टा वाला, दुरात्मा, सब की निन्दा करने वाला, ये सब आदि से अन्त तक कहे हुए पापात्मा अधम (नीच) पुरुष है- यदि ऐसा शिष्य बिना जाने गुरु ने बना लिया हो तो उसे त्याग देना चाहिए ॥
अकृतेभ्यो निवार्याश्च गुरुशिष्याः सहिष्णवः ।
एवं भूताः परित्यज्याः शिष्यत्वेनोपकल्पिताः ॥
यदि ऐसा गुरु या शिष्य मिल जाय तो सहनशीलता के साथ गुरु शिष्य के और शिष्य गुरु के कुकृत्यों को दूर करने का प्रयत्न करे । यदि अनजाने में ऐसा शिष्य गुरु ने बिना जाने-बूझे बना लिया हो तो जानकारी होने पर उसे त्याग देना चाहिए ॥
त्याज्यशिष्यस्य फलश्रुतिकथनम्
यद्येते ह्युपकल्पेरन् देवताक्रोशभाजनाः ।
भवन्तीह दरिद्रास्ते पुत्रदारविवर्जिताः ॥
नरकाश्चैव देहान्ते तिर्यक्षु प्रभवन्ति ते ।
यदि उक्त प्रकार के व्यक्ति को दुरात्मा जान कर भी शिष्य बना लिया जाय तो वह गुरु देवता के कोप का पात्र होता है और स्त्री-पुत्र विहीन होकर दरिद्रता भोगेगा । देहान्त हो जाने पर नरक यातना भोग करके पक्षी योनि में जन्म लेगा ॥
ये गुर्वाज्ञां न कुर्वन्ति पापिष्ठाः पुरुषाधमाः ॥
न तेषां नरकक्लेशनिस्तारो मुनिसत्तम ।
हे मुनिवर! जो पापी अधम पुरुष गुरु की आज्ञा का पालन नहीं करते, उनका नरक यातना से निस्तार नहीं होता ॥
क्षुब्धाः प्रलोभिनास्तैस्ते निन्दितेभ्यो दिशन्ति ये ॥
विनश्यत्येव तत्सर्वं सैकते शालिबीजवत् ।
अन विवा दुःखित गुरु जो कुछ आज्ञा देते हैं वह आज्ञा रेतीली भूमि में बोए हुए धान्य बीज के समान नष्ट हो जाती है ॥
सीधे है शिष्टेः शश्वदाराध्य गुरवो ह्यवमानिताः ॥ पुत्रमित्रकलत्रादि सम्पद्भ्यः प्रच्युता हि ते ।
जो सज्जन पुरुष निरन्तर आराधना करते रहने पर भी यदि कदाचित् गुरु का अपमान करे तो वे उस पाप के कारण स्त्री, पुत्र, मित्र, आदि से तथा धर सम्पत्ति से हीन हो जाते हैं ॥
अधिक्षिप्य गुरुं मोहात् परुषं प्रवदन्ति ये ॥
शूकरत्त्वं भवत्येव तेषां जन्मशतोद्भवम् ।
जो पुरुष मोह के वशीभूत होकर गुरु का अनादर कर कठोर वचन कहते हैं वे सौ जन्म तक शूकर होकर घूमते रहते हैं ॥
ये गुरुद्रोहिणो मूढ़ाः सततं पापकारिणः ॥
तेषाञ्च तावत् सुकृतं दुष्कृतं स्यान्न संशयः ।
जो मूढ़ गुरु द्रोही होकर सदैव पाप सञ्चय करते हैं उनके पूर्वोपार्जित समस्त पुण्य निश्चय ही पाप रूप में परिणत हो जाते हैं ॥