विपुल रेगे। 72 हूरें मिलने का सत्य कोई नहीं जानता लेकिन इतना ज़रुर जानता है कि निर्दोषों का रक्त बहाने से हूरें नसीब नहीं होती। फिल्म निर्देशक संजय पूरण सिंह चौहान ने इसी लाइन को पकड़कर 72 हूरों पर एक रचनात्मक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है। ’72 हूरें’ एक तीव्र रचनात्मक प्रस्तुति है और तयशुदा सिनेमाई मापदंडों को तोड़कर एक नया आयाम स्थापित करती है। ’72 हूरों’ जैसे संवेदनशील विषय पर ‘आम मसाला’ फिल्म बनाई नहीं जा सकती थी। आम दर्शक तक बात आसानी से पहुँच जाए, इसके लिए संजय पूरण सिंह चौहान ने रचनात्मक स्वतंत्रता और दर्शक की सिनेमाई समझ के बीच संतुलन बना लिया है।
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यदि मैं संजय पूरण सिंह की ’72 हूरें’ को विश्व सिनेमा के स्तर का कहूं तो कुछ गलत नहीं होता। गलत बस ये है कि ये प्रस्तुति बहुत कम दर्शकों के गले उतरने वाली है। फिल्म को लेकर जिस ढंग का ‘टॉक्सिक’ माहौल बनता दिखाई दे रहा था, ये फिल्म वैसी तो कतई नहीं है। इसमें ऐसा कुछ नहीं है, जिससे समाज में किसी तरह का क्षोभ उत्पन्न हो जाए। फिल्म की कहानी लार्जर देन लाइफ है।
दो फियादीन आतंकी बिलाल और हाकिम मुंबई में गेटवे ऑफ़ इंडिया पर एक सुसाइड धमाका करते हैं। धमाके में बिलाल और हाकिम के साथ कई लोग मारे जाते हैं। मरने के बाद दोनों की आत्माएं ’72 हूरों’ के इंतज़ार में भटक रही हैं लेकिन हूरों का कहीं कुछ पता नहीं है। आज भी बहुत से निर्देशक अपनी किसी ख़ास फिल्म के लिए ब्लैक एंड व्हाइट टोन का प्रयोग करते हैं। संजय पूरण सिंह ने फिल्म को ब्लैक एंड व्हाइट में प्रस्तुत किया है। इसके दृश्यों की धार और प्रहार देखने बढ़ जाते हैं।
पवन मल्होत्रा उन अभिनेताओं में से हैं, जो मामूली विषयों पर काम ही नहीं करते। ’72 हूरें’ पवन मल्होत्रा का एक और माइल स्टोन है। इन धूसर रंगों में पवन ने उस आतंकी की मनोदशा का मार्मिक वर्णन किया है, जो मरने के बाद मुक्ति के लिए दर-दर भटक रहा है। निःसंदेह पवन ने अवार्ड विनिंग प्रस्तुति दी है। पवन के साथ आमिर बशीर ने भी प्रभावोत्पादक अभिनय दिखाया है। ’72 हूरें’ का आधार अच्छा अभिनय होने के साथ शानदार कैमरा वर्क और साहसिक स्क्रीनप्ले भी है। ब्लैक एंड व्हाइट दृश्यों को चिरंतन दास की सिनेमेटोग्राफी से देखने के बाद स्टीवन स्पीलबर्ग की ‘शिंडलर्स लिस्ट’ का स्मरण हो आता है।
इतना बढ़िया लाइटिंग इफेक्ट इन दृश्यों को सुंदरतम बना देता है। हाँ ये फिल्म वैसी कतई नहीं है, जैसी सोची गई थी। ये चुनाव जिताऊ फिल्म नहीं है। शायद इसलिए ही फिल्म के लिए धनिक लोग बल्क बुकिंग अभियान नहीं चलाएंगे। ’72 हूरें’ सीधे सपाट लहज़े में कहती है कि बम फोड़कर लोगों की लाशें गिराने से हूरें कभी नहीं मिलेगी। ये मुंबई की स्टीरियोटाइप फिल्मों की भांति नहीं चिल्लाती, शायद इसलिए ही पहले दिन दर्शकों ने इसे अच्छा रिस्पॉन्स नहीं दिया है। निश्चय ही ये एक साहसिक प्रयास है।
फिल्म निर्देशक ने इसे किसी थियेटर में चल रहे ड्रामे की भांति प्रस्तुत किया है। इसके कई दृश्यों से ‘ड्रामा आर्ट’ झलकता है। कहानी काल्पनिक आधार पर थी और इसलिए ही निर्देशक ने ऐसे रचनात्मक प्रयोग किये हैं। यदि आप फिल्म मेकिंग को गहराइयों से पसंद करते हैं और 72 हूरों के कॉन्सेप्ट पर स्तरीय पेशकश देखना चाहते हैं तो आज ही इस फिल्म का टिकट बुक करा सकते हैं।