ओशो ने आठों प्रहर, 24 घंटे मुझे ध्यान में रहना सिखाया, उन्होंने जीवन को सहज और सरल तरीके से जीने की शिक्षा दी, उन्होंने नकार नहीं, सकार की शिक्षा दी यानी जीवन में जो कुछ भी आए उसे दबाओ नहीं, उसे देखो, उसे समग्रता से स्वीकारो! मेरा जीवन बदल गया। आप भी बदल सकते हैं, मेरे अनुभव से कुछ ऐसे..
1) जो कुछ भी करें साक्षीभाव से करें। शांत, मौन और आनंदमग्न होकर करें। ध्यान के लिए किसी आसन में बैठने, समय निर्धारित करने, परिवार से दूर होने, जीवन की आपाधापी से भागने की जरूरत नहीं है।
कबीर कपड़ा बुनते-बुनते पा गये, रविदास ने जूता बनाते-बनाते परमात्मा का साक्षात्कार कर लिया, तिलोपा तील कूटते-कूटते तिलोपाद बन गये; क्योंकि इन्होंने जो किया होश, समग्रता और आनंद के साथ किया और खुद को कर्ता मानने की जगह उस परम के चरणों में अपने कृत्य को समर्पित कर दिया।
भगवान कृष्ण इसे ही निष्काम कर्म कहते हैं। मैं पढ़ता हूं और लिखता हूं तो किसी बोझ की वजह से नहीं, बल्कि वही मेरा आनंद है।
2) साक्षी होते ही जीवन सहज हो जाता है। जीवन को गंभीर न बनाएं, इसे सहजता से लें। गुरू गोरखनाथ कहते हैं, ‘हंसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानं’। हंसते, खेलते सागर के उछाल की तरह जीवन जीएं।
जो मुझसे नहीं मिले हैं, वो मेरी अलग छवि बनाकर मेरे पास आते हैं और जब मिलते हैं तो कई बेहद निराश हो जाते हैं। उन्हें धीर-गंभीर लेखक की जगह हंसी मजाक करता सरल इनसान मिलता है। बाद में वो मेरे कई दूसरे मित्रों से पूछते हैं, क्या सारी किताब संदीप ने ही लिखी है? मैं और ठठाकर हंसता हूं।
लेखकों ने गंभीरता ओढ़ रखी है इसलिए वो शब्द पर ठिठक जाते हैं। जिसने लेखन को सहजता से लिया, वह नि:शब्द को पढ़ लेता है। यदि आप सजग हैं तो मुर्दा और जीवंत लेखन का अंतर साफ स्पष्ट हो जाएगा।
3) साक्षी और सहज होते ही स्वीकार भाव स्वत: प्रकट हो जाता है। जिसने सबकुछ स्वीकारना सीख लिया, उसने परमात्मा को पा लिया, क्योंकि परमात्मा ने कुछ निषेध किया ही नहीं।
हमें सिखाया गया कि झूठ मत बोलो, लेकिन हमारे सामने एक ही पूर्ण अवतार हैं, भगवान कृष्ण, जिन्होंने झूठ को भी समग्रता से स्वीकार किया। उनका झूठ भी सच हो जाता है, जो चैतन्य अर्थात् साक्षी हैं। इसलिए स्वीकार तीसरी दशा है। मूर्छा में जी रहे लोगों का तो सच भी दो कौड़ी का है!
आप भी इस दशा में जीएं, आप वही नहीं रहेंगे जो आज हैं!