फिल्म निर्देशक प्रकाश झा कभी अपनी वास्तविकनुमा फिल्मों के लिए सिनेमाई स्वतंत्रता का लाभ लेने से चूकते नहीं है। ओटीटी प्लेटफॉर्म पर उन्होंने पाया कि यहाँ तो सिनेमाई स्वतंत्रता की परिभाषा का ही लोप हो जाता है। उन्होंने पाया कि वे यहाँ कुछ भी रच सकते हैं। प्रकाश झा का इस प्लेटफॉर्म पर आना एक ठंडी बयार की तरह था, जैसे नीरज पांडे ने ‘स्पेशल ऑप्स’ बनाकर ये प्रयत्न किया कि यहाँ पसरी एकता कपूर नुमा गंध कुछ दूर हो सके। आश्रम का पहला सीजन देखने के बाद ये कहना होगा कि प्रकाश झा ने भी वही काम किया, जो शाहरुख़ खान क्लास ऑफ़ 83 बनाकर कर गए हैं। वास्तविक घटनाओं पर लिखी कहानी में काल्पनिक चरित्र डालकर परदे पर पेश करना अब एक निकृष्ट परंपरा बनती जा रही है।
आश्रम की कहानी में संत आसाराम का अक्स झलकता है तो इसमें मुझे कोई आश्चर्य नहीं लगता। प्रकाश झा ने बखूबी फिल्म में बहुत से ऐसे संकेतों का प्रयोग किया है, जो बताते हैं कि बाबा निराला सिंह का किरदार आसाराम पर आधारित है। जैसे सेवादार को ऑपरेशन के जरिये नपुंसक बनाना, ताकि वह अपनी सुंदर पत्नी के साथ संबंध न बना सके और बाबा उसकी पत्नी को नशीला लड्डू खिलाकर जाल में फांस सके।
ऐसे कई प्रसंग इशारा करते हैं कि आश्रम का पहला सीजन किस धर्म और किन परंपराओं पर चोट करता है। प्रकाश झा एक साहसी निर्देशक हैं। उन्हें काल्पनिक चरित्र न रखकर वास्तविक बाबाओं पर फिल्म बनानी चाहिए। जब चोट करनी ही है, तो परदे के पीछे से क्यों की जाए। साहसी फ़िल्मकार को सामने आकर प्रहार करना चाहिए। तभी तो उनके साहसी फिल्मकार का तमगा सत्य प्रतीत होगा।
आमतौर पर ऐसी फ़िल्में बहुत जल्दबाज़ी में बना ली जाती है। मामला कोर्ट में होता है और ये निर्देशक जाँच और गवाहों के बयान के आधार पर एक स्क्रिप्ट लिख डालते हैं। बताइये अब तक आसाराम का प्रकरण अब तक न्यायालय में विचाराधीन है। आसाराम को अब तक सज़ा नहीं सुनाई गई है।
अब तक ये पता नहीं है कि जिन गवाहों ने आसाराम को जेल पहुंचाया, वे सत्य भी बोल रहे हैं या नहीं। अच्छा होता प्रकाश झा आसाराम पर एक विश्वसनीय फिल्म बनाते। जिसमे संपूर्ण घटनाक्रम को दर्शाया जाता।
फिर ये फिल्म दर्शनीय होने के साथ वास्तविक होती और कोई फिल्म पर ऊँगली नहीं उठा पाता। प्रकाश झा ने यहाँ पर पात्रों के नाम बदल दिए लेकिन कहानी वही है, बयानों के आधार पर गढ़ी हुई। एक तरह से ये अनैतिक रचनात्मकता कही जाएगी। क्या ये अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त माध्यम का दुरूपयोग नहीं कहा जाएगा।
प्रकाश झा एक अनुभवी फिल्मकार हैं। उन्होंने बहुत एंगेजिंग फिल्म बनाई है। फिल्म निर्माण के हर विभाग में झा खरे उतरते हैं। हालांकि ऐसी एंगेजिंग फ़िल्में वे उन अनगिनत मौलवियों और चर्च के फादर्स पर क्यों नहीं बनाते, जिनकी कहानियां दरिंदगी से भरी हुई हैं।
उन कहानियों में जैसी हैवानियत है, संसार को उनके बारे में भी तो पता चले। लेकिन नहीं, यहाँ आपके भीतर का साहसी फ़िल्मकार कहीं जाकर छुप जाता है। आसाराम के वास्तविक नाम से आप फिल्म बनाने का साहस नहीं जुटा सकेंगे। फिर आप सिनेमेटिक लिबर्टी नहीं ले सकेंगे। फिर आप एक विशेष धर्म पर प्रहार कैसे कर सकेंगे प्रकाश झा जी। कंगना रनौत ने अभी एक इंटरव्यू में कहा कि बॉलीवुड को ये मानने में कोई झिझक नहीं कि वह एंटी हिदुत्व है। प्रकाश झा जैसे फिल्मकार कंगना की बात को सिद्ध भी कर रहे हैं।
कोर्ट में विचाराधीन एक प्रकरण को बेस बनाकर प्रकाश झा ने आश्रम के पहले सीजन का ड्रामा रचा। दूसरे सीजन में वे एक अन्य बाबा राम रहीम पर प्रहार करेंगे। राम रहीम का प्रकरण भी अभी विचाराधीन है। लिहाजा एक काल्पनिक संत के जरिये उन्होंने मीडियाई कहानियों और बयानों के आधार पर दो सीजन बना लिए हैं।
बॉबी देओल के लिए ओटीटी प्रकरण निराशाजनक रहा है। यहाँ उन्होंने दो फिल्मों में जीवंत अभिनय दिखाया है लेकिन कमाया अपयश ही है। बॉबी असीम संभावनाओं वाले अभिनेता हैं। उन्हें ऐसी विवादित फ़िल्में नहीं करनी चाहिए, जिनमे अधकचरे काल्पनिक तथ्य डाले जाते हो।